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योगसार टीका। [१६७ कर्म रहित शुद्ध आत्मामें मात्र एक ज्ञानचेतना है ज्ञानानन्दका ही अनुभव है।
(६) अमृतत्व--यह आत्मा यद्यपि असंख्यात प्रदेशी एक अखंड द्रव्य है तथापि यह स्पर्श, रस, गंध, वर्णसे रहित अमूर्तीक है । इन्द्रियोंके द्वारा देखा नहीं जासक्ता है । आकाशके समय निर्मल आकारधारी ज्ञानाकार है | इन छः विशेष गुणोरं यह आत्मा पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, कालाणु व आकाश इन पांच अचेतन द्रव्योंसे भिन्न झलकता है | हरएक आत्मा स्वभावसे परम वीतराग शांत निर्विकार है, अपनी ही परिणत्तिका कता व मोक्ता है, परका कर्ता व भोक्ता नहीं | हरएक आत्मा परम शुद्ध परमात्मा परम समदशी है।
इस तरह जो अपने आत्माको व परकी आत्माओंको अर्थात विश्वको सर्व आस्माओंको देखता है वहां पूर्ण स्वाभाविक या समभाव झलकता है । यही समभाव चारित्र है, ध्यान है, भावसंबर है भात्र निर्जरा है, यही कर्म क्षयकारी भाव है, यही निर्जराका उपाय है। योगियोंने, परम ऋषियोंने व अरहनोंने स्वयं अनुभव करके यही बताया है । मुमुक्षुको सदा ही अपने आत्माका ऐसा शुद्ध ज्ञान रखना चाहिये । समयसार कलशामें कहा है
अनाद्यनन्तमचलं स्वसंवेद्यमयाधितम् ।
जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ॥ १-२ ।। भावार्थ-यह जीव अनादिसे अनंतकाल तक रहनेवाला है, चंचलता रहित निश्चल है, स्वयं चेतनामई है, स्वानुभवगोचर है, सदा ही चमकनेयाला है। तत्वानुशासनमें कहा है
स्वरूपं सर्वजीवानां स्वपरस्य प्रकाशनं । भानुमंडलवत्तेषां परस्मादप्रकाशनं ॥ २३५ ॥