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१६०] योगसार टीका । ___अन्वयार्थ-(जिणसामी एहउ भण) जिनेन्द्र भगवान ऐसा कहते हैं (जइ सहुववहारु छंडवि णिम्मलु अप्पा मुणहि) यदि तू सर्व व्यवहार छोड़कर निर्मल आत्माका अनुभव करेगा (लहु भवपास पावडु) तो शीन भवसे पार होगा।
भावार्थ-यहां जिनेन्द्र भगवानकी यही आज्ञा है व यही उपदेश बनाया है कि निर्मल आत्माका अनुभव करो। यह अनुभव तब ही होगा जब सर्व परके आश्रय व्यवहारका मोह त्यागा जायगा,. पर पदार्थका परमाणु मात्र भी हितकारी नहीं है । व्यवहार धर्म, व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका जितना विषय है वह सत्र त्यागनेयोग्य है | सम्यग्दधी चाहे गृहस्थ हो या साधु, केवल अपने ॐ आत्मा है ना निगमली जानता । दोष सर्वको त्यागनेयोग्य परिग्रह जानता है।
। यद्यपि वह मनके लगानेको व ज्ञानकी निर्मलताके लिये सात तत्वोंका विचार करता हैं, जिनवाणीका पठनपाठन मनन उपदेश करता है, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग पांच व्रतोंको एकदेश या सत्रदेश पालता है, मन्त्रोंका जप करता है, उपवास करता है, रसत्याग करता है तो भी इन सब कार्योको व्यवहार धर्म जानके छोड़नेयोग्य समझता है, क्योंकि व्यवहारके साथ राग करना कर्मबंधका कारण हैं | केवल अपनी आत्माकी विभूति-ज्ञानानन्द सम्पदाको अपनी मानके ग्रहण किये रहता है। सर्व चेतन, अचेतन व मिश्न परिप्रहको त्यागनेयोग्य समझता है। सिद्धोंका ध्यान करता है तो भी सिद्धोंको पर मानके उनके न्यानको भी त्यागनेयोग्य जानता है, क्योंकि यहां भी शुभ रागका अंश है ।
और तो क्या, गुणगुणी भेदका विचार भी परिग्रह है, व्यवहार है, त्यागनेयोग्य है, क्योंकि इस विचारमें विकल्प है । विकल्प है यहाँ