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योगसार टीका |
दर्शन पांच प्रकार, आंव हिलादि पांच प्रकार या पांच इन्द्रिय व मनको वश न रखना तथा छः कायकी दया न पालना, इसतरह बारह प्रकार, कषाय पच्चीस प्रकार, योग पंद्रह प्रकार सब सत्तावन आस्रव व बन्धके कारणभाव हैं ।
संक्षेप में योग व कषाय से आसव व बन्ध होते हैं। मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिसे जब आत्मा के प्रदेश सकम्प होते हैं तब योगशक्तिले कर्मवगणाएं खिंचकर आती हैं व बन्ध जाती हैं । ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूप बन्धन प्रकृतिबन्ध है। कितनी संस्था बन्धी सो प्रदेशबन्ध है । इन दो प्रकार बन्धका हेतु योग है। कमोंमें स्थिति पड़ना स्थितिबन्ध है। फलदान शक्ति पड़ना अनुभाग बन्ध है। ये दोनों बन्ध कषायसे होते हैं।
कम आस्रव रोकनेको संबर कहते हैं । उनका उपाय आस्रव विरोधी भावोंका लाभ है । सम्यग्दर्शन, अहिंसादि पांच प्रत, कषायरहित वीतरागभाव व योगोंका स्थिर होना संवरभाव है |
पूर्व बांधे हुये कमका एकदेश गिरना निर्जरा है। फल देकर गिरना सविपाक निर्जरा है। बिना कल दिये समय पूर्व झड़ना अविपाक निर्जरा है। उसका उपाय तप वा ध्यान है। संवर व निजरा द्वारा सर्व कर्मसे रहित होजाना मोक्ष है । इन सात तत्वोंमें पुण्य 'पाप मिलाने से नौ पदार्थ होजाते हैं । पुण्य पाप आस्रव व बंध तत्वोंमें गर्भित हैं । व्यवहार नयसे इन नौ पदार्थोंमें जीव, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये चार ही ग्रहण करने योग्य हैं, शेष पांच त्यागने योग्य हैं। निश्वयनयसे एक अपना शुद्ध जीव ही ग्रहण करने योग्य हैं । समयसारमें कहा है
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भृत्येणाभिगदा जीवाजीबा य पुण्यपाचं च ।
आसव संवर णिज्जरबन्ध मोक्खो य सम्मतं ॥ १५ ॥