________________
५५४]
योनसार टीका 1 गोम्मटसार जीवकांड में कहा है-- छध्यमवपिहा अस्थायी जिणवरोपाटा । आगाए अहिगमेण य सदहण होइ सम्मत्तं ।। ५६०॥
भावार्थ-जिनेन्द्र भगवानके उपदेशके अनुसार छ: द्रव्य, पाच अस्तिकाय, नव पदार्थीका श्रद्धान आज्ञा मात्रसे या शास्त्रोंके पठन पाठन व न्यायकी युक्तिसं समझकर करना व्यवहारनयसे सम्यक्त है ।
अवजोगो वण्णचऊ लपवणमिह जोधपोगालाण तु । गदिटाणोगहवत्तणकिरियुक्यारो दु धम्मचऊ ॥ ५६४ ॥
भावार्थ- उपयोग ज्ञान दर्शन लक्षणका धारी जीव द्रव्य है । स्पर्श रस गंध वर्ण लक्षणधारी पुल द्रव्य है । जीव पुद्गलके गमनमें उदासीन रूपसे सहकारी धर्मद्रव्य है। जीव द्रव्यको ठहरने में सहकारी अधर्म द्रव्य है । सर्व द्रव्योंको स्थान देनेवाला अवकाश द्रन्य है । द्रव्योंके पलटनेमें निमित्त कारण काल द्रव्य है । इसतरह छः द्रव्योंका भरा यह लोक है । जो सन् हो, सदा ही रहे उसको द्रव्य कहते हैं। जीव द्रव्य उपयोग सहित है, ज्ञाता हटा है, यह बात प्रगट है~
शरीरादि पुद्गल रचित हैं उनकी सत्ता भी प्रत्यक्ष प्रगट है। शेष चार द्रव्य अमृर्तीक हैं, इनकी सत्ता अनुमानसे प्रगद है | जीव पुद्गल चार कार्य करते हैं उनमें उपादान कारण वे स्वयं हैं, निमित्त कारण शेप चार द्रव्य हैं । गमन सहकारी लोकाकाश व्यापी धर्मद्रव्य है, ठहरनेमें सहकारी लोकाकाशव्यापी अधर्म द्रव्य है। अवकाश देनेवाला आकाश है, परिवर्तन करानेवाला कालाणु द्रव्य है जो असंख्यात है । एक एक आकाशके प्रदेश पर एक एक कालाणु है । जीव अनंत हैं, पुद्गल अनंत हैं, अनंत आकाशके मध्य लोक है । लोकमें सर्वत्र शेष पांच द्रव्य हैं । सूक्ष्म पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति सर्वत्र