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योगसार टीका |
सेवन, निरोग शरीर, शीस, उष्ण, दंशमशककी बाधाका सहन, ये सब निमित्त कारण ध्यान में उपयोगी हैं | अभ्यास प्रारंभ करनेवालोंको परीषद न आवे इस सम्हाल के साथ ध्यान करना होता है । जब अभ्यास बढ़ जाता है तब परीपहोंके होनेपर निश्चल रह सक्ता है । साधकको पूर्णपने अपने ही भीतर रमण करना चाहिये, यही निर्वा का मार्ग है। समाधिशतक में कहा है—
यदमाझं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जानाति सर्वथा सर्वे तत्स्यसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २० ॥
येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि । सोऽहं न तन्न सा नासौ नैको न द्वौ न वा बहुः ॥ २३॥ यदमात्रे सुपुप्तोऽहं यद्भावे व्युत्थितः पुनः । अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तत्त्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २४ ॥ क्षीयन्तेऽत्रैव रामाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यतः । बोधात्मानं ततः कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः ॥ २५ ॥ भावार्थ - जो न ग्रहण करने योग्य परभाव हैं या परद्रव्य हैं उनको ग्रहण नहीं करता है व जो अपने गुणका स्वभाव है जिनको सदा महण किये हुये हैं उनका कभी त्याग नहीं करना है, किंतु जो सर्व प्रकार से सर्वको जानता है वही मैं अपने आप अनुभव करने योग्य हूं | जिस आत्मीक स्वरूपसे में अपने आत्माको आत्माके भीतर आत्माके द्वारा आत्मारूप ही अनुभव करता हूं वही मैं हूँ । न मैं पुरुष हूँ, न स्त्री हूं, न नपुंसक हूं, न एक हूं, न दो हूं, न बहुत हूं ।
जिस स्वरूपको न जानकर मैं अनादिसं सोरहा था व जिसको जानकर मैं अब जाग उठा वह मैं अतीन्द्रिय, नाम रहित, केवल स्वसंवेदन योग्य हूं। जब मैं यथार्थ तत्वदृष्टिसे अपनेको हान स्वरूप