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यांगसार टीका। सकते हैं। ये विचार ध्यानक जमानेके लिये कभी २ निमित्त साधक होजाते हैं परन्तु इन विचारोंके भी बंद हुप विना ध्यान नहीं होगा।
यदि कोई व्यवहार चारित्रको नहीं पाल, लौकिक व्यवहारमें लगा रहे तो आत्माक भीतर उपयोग स्थिर नहीं हो सकेगा । इसी कारण परिग्रह त्यागी निग्रंथ मुनि ही उत्तम धर्मध्यान तथा शुलध्यान कर सक्त हैं । गृहस्थको भी मन वचन कायकी क्रियाको स्थिर करनेके लिये बारह व्रतोंका संयम जरूरी होता है । जितना परिग्रह कम होगा उतनी मनमें चिन्ता कम होगी। केवल व्यवहार चारित्रसे, मुनि व श्रावकके भेषम, मोनका कुछ भी साधन नहीं होगा। मोक्ष नो आत्माका पूर्ण स्वभाव है ! तब उसका साधन इसी स्वभावकी भावना है, आत्मदर्शन है, निश्वय रत्नत्रय है, खानुभत्र है । स्वानुभक्के लाभ लिये निमिन व्यवहार चारित्र है ।
समयसारमें कहा है - णवि एस मोक्खममो पाखंडी मिहमयाणि लिंगाणि । दसणणाणचरिताधि मोक्त्रममा जिणा विति ॥ ४३२ ।। जमा जहित लिंगे सागारणगारि पनि वा गाईदे । दसणणाणचरित्ते अप्माण झुंज मोक्खरहे ॥ ४३३ ॥
भावार्थ-साधुके ब गृहस्थ के मेप व व्यवहार चारित्र मोक्षमार्ग नहीं है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्षमार्ग है ऐसा जिनेन्द्र कहते हैं । इसलिये गृहस्थक व साधुके भेषमें या व्यवहार चारित्रमें ममता त्यागकर अपनेको निश्चय रजत्रयमई मोक्षमार्गमें जोड़ दे। समयसार कलशमें कहा है...
व्यवहारविमूहदृष्टयः परमार्थ कलयन्ति नो जनाः । . सुषषोधविमुझबुद्धयः कलमन्तीह तुषं न तन्दुलम् ।। ४८-१०॥
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