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१४४ ] योगसार टीका। मन्द कषायसे शुभ प्रवृत्ति है, दयाभावमे वर्तन है, परोपकार भाव है, शास्त्रोंका विचार है, जीवादि तत्वोंका मनन है, वही अशुभ भाव न होकर शुभभाव है जो पुण्यबन्धका कारक है ।
द्रव्यसंग्रहमें कहा हैअसुहादो विणिवित्ती मुहे पवित्ती य जाण चारित । बदसमिदिगुतिरुत्रं यवहारणया दु जिम भणिय ।। ४५॥
भावार्थ-अशुभसे छूटकर शुभमें प्रवृत्ति करना व्यवहारनयसे जिनेन्द्रने चारित्र कहा है-वह पांच महाजन, पांच समिति तीन गुमिरूप है 1 व्यवहार पत्रित है। +, बपा, काके मत है इसलिये वहां उपयोगपर मुखाकार है. अपने आत्मासे दूर है इसलिये बन्धका कारक है, निश्चय स्वाश्रय है। आत्मा ही पर उपयोग सन्मुख है वहीं शुद्ध भावना है जो निर्माणका कारण है। यदि कोई सम्यग्दृष्टी नहीं है और वह केवल व्यवहारचारित्रसे मोक्षमार्ग मान ले तो यह उसकी भूल है, यह संसारका ही मार्ग है ।।
बाहरी आलम्बनको या निमित्तको उपाशन मानना मिथ्यात्व है। करोड़ों जन्मोंमें यदि कोई व्यवहार चारित्र पाले तब भी वह मोक्षके मार्गपर नहीं है । शुदात्मानुभवके प्रतापसे अनादिका मिथ्यादृष्टी जीत्र सम्यक्ती व संचमी होकर उसी भवसे नित्रांणका भागी होसकता है । समयसार कलशामें कहा है
वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानम्म भवनं सदा । एकद्रव्यस्वभावत्वान्मे शहेतुस्तदेव तत् ॥ ७ ॥ वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि । द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत् ॥ ८-४ , भावार्य-आस्माका ज्ञान स्वभाषसे वर्मना, सदा आत्मीक