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योगसार सका। चार प्रकार दान, श्रावक व मुनिका व्यवहार चारित्र, क्षमाभाव, सन्तोप, सन्तोषपूर्वक आरम्भ, अल्प ममत्व, कोमलता, समभावसे कष्ट सहन, मन, वचन, कायका सरल कपट रहित बर्तन, परगुण प्रशंसा, आत्मदोप निन्दा, निरभिमानता आदि शुभ भावोंसे होता है । असालावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम, नीचोत्र व ज्ञानावरणादि चार घातीय कर्म पापकर्म है। उनका बन्ध ज्ञानके साधनमें विन्न करनेसे, दुःखित, शोकित होनेसे, मदन करनेस, परको कष्ट देनेस, परका बात करनेसे, सच्चे देव गुरु धर्मकी निन्दा करनेले, तीन कपाय करनेने, अन्यायपूर्वक आरम्भ करनेसे, बहुत मृच्छी रखनेसे, कपटसे वर्तन करनेमे, मन पराको कल बल नेरी, झाला करो, परनिन्दा व आत्म प्रशंसाले, अभिमान करनेसे, मानादिमें विघ्न करनेमे, अन्यका बुरा चिंतमनसे, कठोर व असत्य वचनसे, पांच पापोंमें बर्तनसे होता है।
दोनोंके फलसे देव, ममुष्य, तिर्यच, नरक गतियों में जाकर सांसारिक सुख व दुःखका भोग करना पड़ता है। प्रत. तप, शील, संयमके पालनमें शुभ राग होता है, पुण्यका बन्ध होता है । उससे कर्मका क्षय नहीं हो सक्ता है । इसलिये यहां कहा है कि पुण्य घ पाप दोनों ही प्रकारके कमाको बेड़ी समझकर दोनोंहीके कारण भावोंसे राग छोड़कर एक शुद्ध आत्मीक भावका अनुभव करना योग्य है। ___ मोक्षका कारण एक शुद्धोपयोग है। पाप व पुण्य दोनोंके बन्धका कारण एक कषायभाव है। दोनोंका स्वभाव पुद्गलकर्म है । दोनोंका फल सुखदुःख है जो आत्मीक सुखको विरोधी है । दोनों ही अन्ध मार्ग हैं। ऐसा समझकर ज्ञानीको सर्व ही पुण्यपापसे पूर्ण मैराग्य रखना चाहिये । केवल एक अपने शुद्ध आत्माका ही दर्शन