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मान्य
नन-
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१५८] योगसार दीका। संगतिसे व रागसे आत्माकी स्वाधीनताका नाश होता है। समयसार कलशमें कहा है
हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः। तद्वन्धमार्गाश्रितमेकमिट स्वस्य समस्तं खलु बन्ध हेतुः।। ३-४॥
भावार्थ-पुण्य व पाप दोनोंका हेतु स्वभाव फल व आस्रव एक रूप ही हैं, कुछ भेद नहीं है । दोनों ही बंधके मार्ग हैं, दोनोंको सर्वको बंधका कारण जानना चाहिये। .
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निश्चय चारित्र ही मोक्षका कारण है।
उतउसंजमुसील जिय इय सम्बई काहारु । मोक्खह कारण एक मुणि जो तइलोयह सारु ॥३३॥
अन्वयार्थ-(जिय) हे जीव ! (वउनउसंजमुसील इय सव्यइ चवहार) व्रत, तप, संयम, शील ये सब व्यवहार चारित्र हैं (मोक्खा कारण एक मुणि) मोक्षका कारण एक निश्चय चारित्रको जानो (जो तइलायहु सारु) वहीं तीन लोकमें सार वस्तु हैं।
भावार्थ-तीनलोकमें सार वस्तु मोक्ष है, जहां आत्मा अपना स्वभाव पूर्णपने प्रगट कर लेता है, कर्मबन्धसे मुक्त होजाता है । परमानन्दका नित्य भोग करता है । क्या मोक्षका उपाय भी तीन लोकमें सार है । वह उपाय भी अपने ही शुद्धारमाका सम्यक्त श्रद्धान, ज्ञान व उसी में आचरण है । निश्श्य रत्नत्रयरूप स्वसमय, स्वरूपसंवेदन या आत्मानुभव है । यही एक ऐसा नियमरूप उपाय है। जैसा कार्य या सांध्य होता है वैसा ही उसका कारण या साधना
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