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योगसार टीका |
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जैसे कोई स्त्री पतिके परदेश जानेपर अपना घरका काम करती हुई भी बार बार पतिको स्मरण करती है, कभी स्थिर बैठकर पति गुणांक व विचार करती है । विश्वारले २ कभी प्रेममें आसक्त हो पति निलनेकासा सुख अनुभव करती है । इसी तरह जिनेन्द्र पदका प्रेमी अन्तरात्मा ज्ञानी गृहस्थ हो या साधु आत्मा कार्य सिवाय अन्य कामको करते हुये जिनेन्द्रका बार बार स्मरण करता है | कभी कति स्थिर बैठकर गुणोंको विचारता है, कभी ध्यान में लीन होजाता है । उसका जितना प्रेम जिन भगवानके स्वरूप हैं उतना किसी वस्तु नहीं है, ज्ञानी अंतरात्मा शुद्ध पौनराग भावसे जिन भगवानका स्मरण, चिन्तयन व उनका ध्यान करता है | किसी प्रकारकी वांछा व फलकी चाहना नहीं रखता है | उसके भीतर संसारके सर्व क्षणिक पदोंस पूर्ण वैराग्य हैं । वह इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पोंको भी नहीं चाहता है। न वह इंद्रि योंके तृष्णा भोगोंको चाहता है, न वह अपनी पूजा या प्रसिद्धि चाहता है। वह कपाय कालिमाको बिलकुल मेटना चाहता है, बीतराग होना चाहता है, न्यानुभव प्राप्त करना चाहता है, निजानंद इस पान करना चाहता है । इसलिये वह मुमुक्षु शुद्ध निर्लेप भावने जिनेन्द्र भगवानका स्मरण चितवन व ध्यान करता है । यह उसको ज्ञान है कि भक्ति करने या सविकल्प चितवन करनेसे या निर्वि कल्प ध्यान करने में जितना अंश राग भाव होगा, वह कर्मबन्ध करेगा, पुण्यको भी बांधगा व पुण्यका फल भी होगा । परंतु वह ज्ञानी पुण्यको व पुण्यके फलको बिलकुल चाहता नहीं है । वह तो कर्म रहित पदको ही चाहता है ।
इस ज्ञानीके भीतर सम्यग्दर्शन के आठ अंग भलेप्रकार अंकित रहते हैं । वह ज्ञानो इन आठ अंगों का मनन इसतरह रखता है कि