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यांगसार टीका। [१३१ स्वानुभवका अभ्यास करे नो निर्माणका मार्ग तय कर सके ।
प्रवचनसारमें श्री कुन्दकुन्दाचार्य अट्ठाईस मूलगुण कहते हैंबदसमिनिंदयरोधो लोचावासयमचेलमाहाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभाषण में गमतं च ॥ ८ ॥
गदे खलु मूलगुणा सम्णाणं जिणवरहिं पण्यत्ता । ... तेसु पमत्तो समायो लेदो वट्ठारयो दि ॥ ५ ॥
भावार्थ----पांच महात्रत-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग।
पांच सामाति-इयां दिखकर चलना), भाषा, प्रपणा ( शुद्ध आहार ), आदाननिक्षेपग, युतमर्ग (मल भूत्र देखकर करना)।
पांच इंद्रिय विषय निरोध-छः आवश्यक नित्यकर्मसामायिक, प्रतिक्रमण ( पिछले दोषका निराकरण ), प्रत्याख्यान (सागकी भावना ), स्तुति. वन्दना, फायोत्सर्ग ! सात अन्य१ केशोंका लोंच, २ नम्मपना, ३ स्वान न करना, ४ भूमिपर शयन, ५ दन्तवन न करना, ६ खड़े होकर हाथमें भोजन लेना, ७ दिनरानमें एक दफे दिन में भिन्ना लेना से २८ मूलगुण साधुओंके हैं ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है उनमें प्रमाद हो जानेपर दोपस्थापन या प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होना चाहिये । समयसारमें कहा है
बदसमिदीगुत्तीओ मीलन जिणवरेहि पपणतं । कुलवंतोयि अभचिंग अण्णाणी निच्छदिट्ठीय ।। २०.१ ॥ मोक्ख असद्दहन्तो अभचियसत्तो दु जो अधोएज । पाठो ण करेदि गुणं असदहन्तस्स णाणं तु ॥ २९२ ॥
भावार्थ-जिनेन्द्रोंने कहा है कि अभव्य जीव व्रत, समिनि, गुप्ति, शील, तपको पालते हुए भी आत्मज्ञानके बिना अज्ञानी व