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योगसार टीका। कार्य निमित्त मात्र हैं । कोई अज्ञानी कैथल निमित्त मिलानेकोही मोक्षमा झालेले पर इसकी सूये। मन्दतदिन तीर्थादि व प्रतिमादिके आलम्बनमे अपने भीतर आत्माका दर्शन व पूजन या आत्माम्मी नार्थकी यात्रा की जाये तब ही निमित्तोंका मिलाना' सफल है।
इसीतरह साधुओंको उपदेश है कि एकांत वन, पर्वत, गुफा, नदी, तट, ऊजड़ मकान, पर्वतका शिखर व अत्यन्त ही शुन्य स्थलमें बैठकर ब आसन लगाकर ज्यानका अभ्यास करो, कामको पुष्ट न करो, इन्द्रियदमन करो, चातुर्मासके सिवाय नगरके बाहर पांच दिन व ग्रामके बाहर एक दिनमे अधिक न ठहरो, गृहस्थक घर भिक्षा लेकर तुर्न वनमें लौट जाओ, नग्न रहकर शीत, उष्ण, डांस, मच्छर, नग्नना, बी आदिको बाईस परीपह सहन करो, मौन रहो, मन, वचन, काय गुमिको पालो, मार्गको निरखकर चलो | मुनियोंकी संगतिमें रही. शास्त्रपाठ करो, तत्वोंका मनन करो, नीर्थयात्रा करो।
ये सब निमित्त हैं। इनको मिलाकर साधुको शुद्धास्माका अनुभव करना चाहिये । कोई अज्ञानी साधु इन बाहरी क्रियाओंको ही मोक्षमार्ग मानकर सन्तोषी हो जाये और अपने आत्माके शुद्ध स्वभावका दर्शन ममन व अनुभव न करे तो वह मोक्षमार्गी नहीं है, वह संभारवर्द्धक है, पुण्य बांधकर भवमें भ्रमण करनेवाला है।
__ वास्तवमें अपने आस्माकी निर्मल भूमिमें चलना ही चारित्र है, यही मोक्षमार्ग हैं, ऐसा दृढ़निश्चय रखके साधकको इसी तत्व लाभका उपाय करना योग्य है । समाधिशतकमें कहा है
ग्रामोऽयमिति द्वेधा निवासोऽनात्मदर्शिनाम् । दृष्टालना निवसन्तु विवितात्मैव निश्चलः ॥७३॥