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सांगसारक। भावार्थ-जो आत्माको न देखनेवाले बहिरात्मा हैं उनको यह दोप्रकारका विकल्प होता है कि ग्राममें न रहो वनमें ही रहो, क्नमें रहनेसे ही हित होगा। वे बननिवाससे ही सन्तोषी होजाते हैं। परंतु आत्मा के देखनेवालोंका निवास परभावोस भिन्न निश्चल एक अपना शुद्धात्मा ही है, वे निमित्त कारण मानसे मंतुष्ट नहीं होते हैं। आत्मामें निवासको ही अपना सचा आसन जानते हैं। माक्षपाड़में कहा है
जो इच्छद हिम्मरिद संसारम्हाणवाट रहाओ। कम्भिवणाण इलणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं ॥ २६॥ .
भावार्थ-जो कोई इस भयानक संसार सागरसे पार होना चाहे व कर्म-ईंधनको जलाना चाहे तो उस अपने शुद्ध आत्माका ध्यान करना चाहिये । आत्माका ध्यान ही मोक्षमार्ग है । जो आत्मरसिक है वही मोक्षमार्गी है।
त्रिलोकपूज्य जिन आत्मा हो है। जो तइलोयह अंउ जिणु सो अप्पा णिरु बुत्तु । पिछयणइ एमइ भणिउ एहउ जाणि गिभंतु ॥ २८ ।।
अन्वयार्थ (जो तइलोयह झेड जिणु) जो नीनलोकके प्राणियों के द्वारा ध्यान करने योग्य जिन है (Ar अप्पा णिरु वुभु। वह यह आत्मा ही निश्वयसे कहा गया है । णिच्छयणइ एमड़ भाणउ ) निश्चयनय ऐसा ही कहती हैं ( एहर णिभंतु जाणि :) इस बातको संदेह रहित ज्ञान ।
भावार्थ-यहाँ यह बताया है कि यह आत्मा ही वास्तषमें श्री जिनेन्द्र परमात्मा है जिसको तीनलोकके भत्तजन व्याते है, पूजते