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योमसार टीका। [१३३ भावार्थ--यह आत्मा दर्शनज्ञान माहित है, वीतराग चारित्रबान है, इसको गुरुके प्रसादसे जानकर सदा स्याना चाहिये ।
निर्मल आत्माकी भावना करके ही मोक्ष होगी।
जाम ण भावहु जीव तुटुं गिम्मलअप्पसहाउ। तामण लम्भइ सिगमणु जहिं भानहु नाहि जाउ ॥२७॥
अन्वयार्थ (जीर हे जीव (जाम तुहूं णिम्पल अप्प सहारण भावह ) जबतक द निमल भात्माके स्वभावकी भावना नई करता । नाम सिगमणु ण लगभइ ) तबतक न भोश नहीं पासकना ( जाई भावह नाहि जाउ । जहां चाहे वहा तू जा।
भावार्थ-यही फिर भी दृढ़ किया है कि शुद्ध आत्माके स्वभावकी भावना ही पल, संसार-सागरसे पार करनेवाली नौका है । वह निश्चय रत्नत्रय बाप है, शुद्धात्मानुभव स्वरूप है । यही भाव संवर व निर्जरातन्त्र है | इस भावकी प्राप्रिय लिये जो जो साधन किये जाने हैं. उसको व्यवहार धम सा निमिन कारण कहते हैं। कोई अज्ञानी व्यबहार व हमें उलझ जात्र, निम्बर धर्मका लक्ष्य छोड़ दे तो यह एक पा भी नोक्षपथ पर नहीं चल सका।
_ निश्चय धर्म तो अपने ही भीतर है बाहर नहीं है, परन्तु उसको जात करनेके लिये गृहस्योंको यह उपदेश है कि श्री जिनमंदिरोंमें जाकर देवका दर्शन व पूजन करो, गुरु महाराज की सेवामें जाकर वयात्य करो | शास्त्रभवनमें जाकर स्वाध्याय करो, सम्मेदशिखर, गिरनार, पावापुर, बाहुबली, मांगीतुंगी, मुक्तागिरि आदि तीर्थस्थानों की यात्रा करो, सामायिक करनेफे लिये एकांत स्थान उपवन, नदी, तर, पर्वत आदिमें बैठो। प्रोग्धशालामें बैठकर उपवास करो। ये सब