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योगसार टीका ।
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नहीं है । ऐसे त्रिपदके लाभका उपाय रातदिन अपने आत्माके स्वभावका मनन है | आत्मा स्वयं मोक्षरूप है। आत्मा स्वयं परमा - त्मा है। अपने शरीररूपी मन्दिरमें अपने आत्मादेवको देखना ही चाहिये कि यह शरीरप्रमाण है तथा यह शुद्ध है। इसमें कार्मण, तेजस, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, पाँचों पुरचित शरीरोंका सम्बन्ध नहीं है । न इसमें कोई संकल्प विकल्परूप मन में न फुल रचित वचन है | इसमें कोई कर्मके उदयजनिन भाव राग, द्वेष, मोह आदि नहीं है, यह परमवीतराग है। इसने कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण ये छःकारक विकल्प नहीं है न इसमें गुणगुणीक भेद हैं। यह एक अखण्ड अभेद सामान्य पदार्थ है । यह ज्ञान स्वभाव है, सहज सामायिक ज्ञानका भण्डार है। इसमें कोई अज्ञान नहीं है । इसका स्वभाव निर्मल दर्पण के समान पर प्रकाशक हैं । सर्व जाननेयोग्यको झलकानेवाला, एक समय में खण्डरहित सबैको विषय करनेवाला यह अद्भुत ज्ञान है । विना प्रयास ही ज्ञानमें .झे झलकते हैं ।
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यह आत्मा निरन्तर ज्ञानचेतनामय है । अपने शुद्ध ज्ञान स्वभावका ही स्वाद लेनेवाला है, निरन्तर स्वानुभवरूप है | यह पुण्य-पापकर्म करने के प्रपंचसे व सांसारिक सुखदुःख भोगने के किकरूपसे दूर हैं । कर्मचेतना और कर्मफलचेतना दोनों चेतनाएं अज्ञान'चेतना हैं | आत्मा ज्ञानचेतनामय है । यही सत्य बुद्धदेय है। आपसे ही आपको जाननेवाला स्वयं बुद्ध है और कोई बौद्धोंका देवता युद्ध नहीं है। सचा बुद्धदेव यह आत्मा ही है, यही सच्चा जिन है । सर्व आत्माके रागादि व कर्मादि शत्रुओंको जीतनेवाला है और कोई समवसरणादि लक्ष्मी सहित जिन है सो व्यवहार जिन है। वहां भी विश्वय जिन जिनराजका आत्मा ही है।