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१२६] योगसार टीका।
(५) तेजस-इसके दो भेद है-अशुभतेजस, शुभ तैजस । किसी अनिष्ट कारणको देखकर क्रोधसे संतप्त संयमी महामुनिके मृलशारीरको न छोड़कर सिंदूरके वर्ष बारह योजन लम्या नव योजन चौड़ा सूच्यंगुलके संख्यात भाग मोटा अशुम आकृति सहित बाए कसे युलपाकार विलय भिम वस्तुपो मल र पि.र उस मुनिको भी भस्म कर दे व उसे दुर्गति पहुँचाये सो अशुभ तैजस है । जगतको रोग व दुर्मिन आदिसे पीड़ित देखकर जिस मन्बनी मुनिको करुणा उत्पन्न होजावे उस दाइने कंधेसे पूर्वोक्त प्रमाणधारी शुभ आकारवाला पुरुषाकार निकलकर रोगादि भेटकर फिर शरीरमें प्रवेश कर जावे सौ शुभ नेजस है।
(६) आहार-ऋद्धिधारी मुनिको कोई तखमें संशय होनेपर व दूर न हो सकने पर उसकें. मस्तक शुद्ध स्फटिकके रंगका एकहाथप्रमाण पुरुषाकार निकलकर जहाँ कहीं केवली हों उनके दर्शन करनेसे संशयको मिटाकर अन्तर्मुहूर्तक भीतर लौट आता है।
(७) केवलि-आयुकभकी स्थिति कम व शेष कर्मोकी स्थिति अधिक होनेपर केवलज्ञानीक आत्मप्रदेश लोकव्यापी होकर फिर शरीरप्रमाण हो जाते है, आहार व मारणांतिक समुद्यानों में एक दिशा ही की तरफ प्रदेशोंका फैलाय होकर गमन होता है, जब कि शेष पांचोंमें दशों दिशाओंमें गमन होता है।
इन ऊपर सात कारणों के सिवाय जीव शरीरप्रमाण रहता है व सिद्ध भगवानका आत्मा भी अन्तिम शरीरप्रमाण रहता है। नामकर्मका नाश हो जानेके पीछे उसके उदयके विना प्रदेशोंका संकोच या विस्तार नहीं होता है।
इष्टोपदेशमें पूज्यपाद महाराज कहते हैं
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