________________
११४ ]
योगसार टीका |
भावार्थ- जो जीव भयानक संसार-समुद्रसे निकलना चाहता है तो वह शुद्धात्माको व्यावे । उसीसे कर्म इंधन भरम होगा ।
आला ही जिन है, यही सिद्धांतका सार है । जो जिए सो अप्पा मुहु इह सिद्धं सारु । इंठ जाणेविण जो लंड मायाचारु ।। २१ ।। अन्वयार्थ - ( जो जिष्णु सो अप्पा भुणहु ) जो जिनेन्द्र है वही यह आत्मा है ऐसा मनन करो (इव सिद्धंतहु सारु ) यही सिद्धांतका सार है । (इउ जाणविण) ऐसा जानकर ( जोगड़हु ) हे योगीजनो ! (मायाचार खंड ) मायाचार छोड़ो।
भावार्थ — पीर्थंकरोंके द्वारा जो दिव्यध्वनि प्रगट होती है वही सिद्धका मूल श्री है। उस वाणीको गणधरादि मुनि धारणा में लेकर द्वादशांगकी रचना करते हैं, फिर उसीके अनुसार, अन्य आचार्य ग्रंथ रखते हैं। उनका विभाग चार अनुयोगोंमें किया गया है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग इन चारों होके पढ़ने का सार इतना ही है जो अपने आत्माको परमात्मा के समान समझ लिया जावे।
श्री रत्नकरंड श्रावकाचारमें स्वामी समन्तभद्र कहते हैंप्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् ।
बोधसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ ४३ ॥
भावार्थ - प्रथमानुयोग उसको कहते हैं जिसमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थोंका कथन हो, महापुरुषों के जीवनचरित्र हो, चौवीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण, नौ बलभद्र ऐसे शशलाका पुरुषोंके चरित्र हों, जिसके पढ़नेसे