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योगसार टीका । [११९ लाखों आदमियोंसे फलके गुण सुननेपर भी व पुस्तकोंसे फलके गुण जाननेपर भी हम कभी फलको ठीक नहीं जान पाते । जैसे फलका स्वाद अनुभवगम्य है वैसे ही आप परमात्मा अनुभत्रगम्य है।
समयसारकलशमें कहा हैभूत भान्तमभूतमेव रमसा निमिद्य नई सुधीयद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति न्याहल मोई हटात् । आरमात्मानुभवकाम्यमहिमा व्यक्तोऽयापास्ते ध्रुवं नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देवः स्वयं शाश्चतः ।। १२-१॥
भावार्थ-जो कोई बुद्धिमान विवेकी भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालके कर्मबंधको अपनेस एकदम दूर करके व सर्व मोहको बलपूर्वक त्याग करके अपने ही भीतर नियसे अपनेको देखता है तो उसे साक्षात् यह देखनेमें आयगा कि मैं ही सर्व कर्मकलङ्ककी कीचसे रहित अविनाशी एवं परमात्मा देव हूं जिसकी महिमा उसीको विदित होती है जो स्वयं अपने आत्माका अनुभव करता है। तत्वानुशासनमें कहा है--
कर्मजेभ्यः समस्तेभ्यो भावेभ्यो भिन्नमन्वहं ।
ज्ञस्वभावमुदासीनं पश्येदात्मानमात्मना ॥ १६४ ॥ भावाय-मैं सदा ही कर्मोक निमितसे या समतासे होनेवाले सर्व ही भात्रोंसे जुदा हूं, ऐसा जानकर अपने ही आत्माके द्वारा अपने आत्माको देखे कि यह परम उदासीन एक ज्ञायक स्वभाव है।