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योगसार टीका ।
समें आसक्त न होकर वचन व कायसे कर लेता है | समयसार कलसमें कहा है
नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना । ज्ञानवैभवविरागताबलात्सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥ ३–७ ॥
भावार्थ - ज्ञानी विषयोंको सेवन करते हुए भी विषय सेवनके फलको नहीं भोगता है । वह तत्वज्ञानको विभूति व वैराग्य के बलसे सेवते हुए भी सेवनेवाला नहीं है । समभावसे कर्मका फल भोगनेपर कमेकी निर्जरा बहुत होती है, बन्ध अल्प होता है, इसलिये सम्यष्टी गृहस्थ निर्वाणका पथिक होकर संसार घटाता है। उसकी दृष्टि स्वतन्त्रतापर रहती है, संसारसे उदासीन है, प्रयोजनके अनुकूल अर्थ व काम पुरुषार्थ साधता है व व्यवहार धर्म पालता है, परंतु उन सबसे वैरागी है। प्रेमी मात्र एक अपने आत्मानुभवका है, उससे यह शीघ्र ही निर्वाणको पानेकी योग्यताको बढ़ा लेता है ।
जिनेन्द्रका स्मरण परम पदका कारण है । जिण सुमिरहू जिण चितबहु जिण झायहु सुमणेण । सो झातह परमपर लम्भ एकरणेण ॥ १९ ॥ अन्वयार्थ -- (मुमणेण ) शुद्धभावसे ( जिण सुमिरहु ) 'जिनेन्द्रका स्मरण करो ( जिण चिंतबहु ) जिनेन्द्रका चितवन करो ( जिण झायह) जिनेन्द्रका ध्यान करो ( सो झाहतह ) ऐसा ध्यान करनेसे ( एक्कखणेण ) एक क्षण में ( परमपड लभइ ) परमपद प्राप्त होजाता है ।
भावार्थ --- जिनेन्द्रके स्वभावमें व अपने आत्माके मूल स्वभा में कोई प्रकारका अन्तर नहीं है । सम्यग्दृष्टी अन्तरात्मा आत्माके