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योगसार टीका। भावार्थ-शुद्ध आत्माको अनुभव करनेसे यह जीव शुद्ध. आत्माको पालेता हैं या शुद्ध होजाता है । जो कोई अपने आत्माको अशुद्ध रूपमें श्याता है उसको अशुद्ध आत्माका ही लाभ होता है वह कभी शुद्ध नहीं होसकता । इसलिये शुद्ध आत्मा है ऐसा बतानेवाला निश्चयनय है, सो ग्रहण करनेयोग्य है, व्यवहारनय ग्रहण करने योग्य नहीं है, केवल जाननयोग्य है | आत्माका कर्मसे संयोग अनादिसे चला आरहा है । इस संयोगसे आत्माकी क्या २ अत्रस्था होसकती हैं उनका जानना इसलिये जरूरी है कि उनके साथ वैराग्य होजावे । उनको अपने आत्माकी स्वाभाधिक अवस्था न मान लिया जाने । व्यवहार नय हीमे यह कहा जाता है कि यह आत्मा मार्गणा व गुणस्थानरूप है।
सांसारिक सर्व प्रकारकी अवस्याओंका बहुतसा ज्ञान चौदह मार्गणाओंमे तथा चौदह गुणस्थानोम होता है।
श्री गोम्मटसार जीवकांड के अनुसार उनका स्वरूप पाठकोंके ज्ञान हेतु यहां दिया जाता है
जाहि वं जासु व जीवा ममिगज्जेते जहा तहा दिट्टा । ताओ चोइस जाणे सुयणाणे मग्गणा होति ।। १४१ ।। गइईदियेसु काये जोगे वेद कसायणाणे य । संजमदंसणलेस्साभवियासम्मत्तसण्णिआहारे ॥ १४२ ॥
भावार्थ-जिन अवस्थाओं के द्वारा व जिन पर्यायोंमें जिसतरह जीव देखे जाते हैं वैसे ही हूंड़ लिये जावें, ज्ञान लिये ज्ञा, उन अवस्थाओंको मार्गणा कहते हैं, ये मार्गणाएं चौदह हैं
१ गति, २ इन्द्रिय, ३ काय, ४ योग, ५ वेद, ६ कषाय, ७ ज्ञान, ८ संयम, १ दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्य, १२ सम्यक्त, १३ संझी, १४ आहार ।