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८८] योमसार टीका ।
सुहुदुक्खसुबहुसस्स कम्मरम्वेत्तं कसेदि जीवस्स । संसारदरमेर तेण कसाओत्ति पंति ॥ २८१ ।। सम्मत्तदेससयलचरित्तजडकरवादचरणपरिणामे । पादति वा कसाया चउसोलअसंखलोगमिदा ॥ २८२ ||
भावार्थ-जीवके कर्मरूपी श्वेतको जो कोमर्याद संसार भ्रमण रूप है व जिसमें सुख दुःख रूपी बहुत धान्य पैदा होते हैं जो कसता है या हल चलाकर बोने योग्य करता है उसको कपाय कहने है । अधवा सम्बग्दर्शन व म्वरूपाचरण घात करनेवाले अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ चार कषाय हैं, व देश संयमफे घातक अप्रत्याख्यान क्रोधादि चार हैं, व सकल संयमके घातक प्रत्याख्यान क्रोधादि चार हैं, व यधात्यात चारित्रक परिणामोंको घात करनेवाले संज्वलन क्रोधादि चार व नो नोकषाय (हाम्य, रनि, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवंद, नपुंसकवेद ) हैं, इसलिये उनको कषाय कहते हैं । इसकं मूल चार या सोलह या पच्चीग्न आदि असंख्यात्त लोकप्रमाण भेद हैं। (७) ज्ञान मार्गणा आठ प्रकार
जाणइ लिंकालविरग, दगुणे पजा य बहुभेदे । पचकवं च परंकाव अगेण णाणत्ति णं ति ॥ २४ ॥
भावार्थ-जो भुत, भविष्य, वर्नमान, नीन काल सम्बंधी सर्व द्रव्योंके गुणोंको व उनकी बहुत पर्यायीको एक काल जानता है उसको ज्ञान कहते हैं । मन व इन्द्रियों के द्वारा जो जाने सो परोक्ष ज्ञान है : मति, श्रुत, कुमति, कुश्नुत, आत्मा स्वयं जाने सो प्रत्यक्ष ज्ञान है । अवधि, कुअवधि, मनःपय तथा केवलज्ञान, सम्यग्दर्शन सहित भात्र सम्यग्ज्ञान है, मिथ्यादर्शन सहित तीन कुज्ञान हैं।