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योगसार टीका [९७ किया जाता है, उसके गुणस्थान चार है-आठवा, नौका, दशा, ग्यारहयो । फिर नियमसे कमसे पतन होता है। संपक श्रेणी जहां मोहका भय किया जाता है, इस श्रेणीपर ववृषभनाराच संहननधारी ही चढ़ सकता है। उसके चार गुणस्थान हैं-आठवां, नौया। दशवा, ग्यारह्वा ।
फिर बारहवां गुणत्यागधारी तीन दो या तीन कर्म का करके तेरहवेमें जाकर अरहन्त परमात्मा जिनेन्द्र हो जाता है। उसी गुणस्थानमें विहार व उपदेश होता है | आयुके भीतर जब अ, इ, उ, ॐ, ऋ, ल, लघु पंच अक्षर उकारण मात्र काल शेष रहता है तब चौदहा गुणस्थान होता है. फिर जीव सिद्ध हो जाता है।
छटे, पांचवें, चौथेसे गिरकर एकदम किसी भी नीचेके गुणस्थानमें आ सकता है, तीसरे व दुसरेसे आकर पहलेमें ही जायगा, तीसरेमें वक्षपकश्रेणीमें व केवलीके तेरहवेमें मरण नहीं होता है । पहले, चौथे, पाचवें, तेरहवेका काल उत्कृष्ट बहुत है । शेष सर्व गुणस्थानोंका काल एक अन्तर्मु र्तने अधिक नहीं है।
एक जीवके चौदह मार्गणा, एक साथ पाई जायगी व गुणस्थान एक ही होगा | एक प्रमसविरत साधुके उपदेश देते हुए इसप्रकार मार्गणाएँ होंगी
१ मनुष्य गति, २ पंचेन्द्रिय, ३ त्रसकाय, ४ वचनयोग, ५ पुंवेद, ६ लोभ कषाय, ७ श्रुतज्ञान, ८ सामायिक संयम, १ चक्षु अचक्षुदर्शन, १० शुभ लेश्या, १६ भन्यत्व, १२ वेदक सम्यक्त, १३. संझी, १४ आहारक ।
कौकी अपेक्षा ही वे गुपस्थान व मारणा है । इसलिये व्यवहारमयस काही हैं, नियमअमेति इनसे सीमा है। .. समयसार में कहा है. . . . .