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योगसार टीका । भावार्थ चारित्रके ईशपनेको प्राप्त व सर्व आम्रवोंसे मुक्त व धातीय कर्मरजसे रहित जीव अयोगवलि जिन होते हैं ।
पहले पांच गुणस्थान गृहस्थोंके छः से बारह तक साधुओंके व तेरह चौदह दो गुणस्थान परमात्मा अरहनके होते हैं। ___अनादि मिथ्यादृष्टी जीव चार अनन्तानुबंधी कपाय और मिथ्यात्त्रकर्मको उपशम कर लेने पटक मात्र अद था कोई भी प्रत्याख्यानकवायका भी उपशम करके एकदम पांचवेमें आकर या कोई प्रत्याख्यान कपायका भी उपशम करके एकदम सातवमें आकर उपशम सम्यक्ती एक अन्तमुहर्त के लिये होता हैं बह मिथ्या. त्वकमय तीन खंड कर देता है-मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यकप्रकृति रूप ।
इसी कालमें छ: आवली तक शेष रहनेपर यदि अनन्तानुबंधी किसी कषायका उदय होजावे तो दूसरे सासादनमें गिरना है. फिर नियमसे पहलेमें आजाता है । यह गुणस्थान उपशमन गिर करके ही होता है । यदि उपशम सम्यक्तीके मिश्रका उदय आजाये तो तीसरे मित्र गुणस्थानमें गिरता है | एक दफे मिथ्यात्वमें गिरा हुआ फिर यहांसे तीसरमें जासक्ता है | यदि सम्यक्त मोहनीयका उदय होजाय तो उपशममे वेदक सम्यक्ती होजाता है । वेदकसे क्षायिक सम्यक्ती चौथेसे सातवे तक किसीमें होसक्ता है ।
चौथसे पांचवे में या सातवमें जासक्ता है। पांचवेमे सातवे चला जाता है, छठेमें नहीं । सातवेसे छठे में गिरता है। साधुके छठा सातवां झारखार हुआ करता है। इस पञ्चमकाल में सात गुणस्थान ही हो सकते हैं। आगेके गुणस्थान उत्तम संहननवालोंके होते हैं। पंचमकालमें तीन नीचेके संहनन ही होते हैं।
धर्मध्यान सांतवे तक होता है, शुबध्यान 'आठवेसे होता है, सातबेके आगे दो श्रेणियाँ हैं-उपञ्चम श्रेणी नहीं मोहका उपशम