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योगसार टीका ।
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करता है, जानता है तथा उसका आचरण भी करता है | जिसकी रुचि होजाती है उस चित्त स्थिर होता है। आत्मस्थिरता भी करने की योग्यता अविरत सम्यक्ती गृहको होजाती है। वह जब चाहे तब सिद्धके समान अपने आत्माका दर्शन कर सका है। आत्मचीन हम्य तथा माधु दोनों ही कर सके हैं। गृहस्थ अन्य कार्यों की चिन्ता कारण बहुत थोड़ी देर आम्मदर्शन के कार्य में समय इसका है जब कि साधु गुड़ी काय निवृत्त है। उस साधुको यह अनेक कार्यो को -
साधुपदमें
न्तर आत्मदर्शन कर सका है। निर्वाणकालात् हो होता है, गृहस्थ में एकदेश साधन होता है ।
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धर्मका भी इंद्रिय
हरएक तलझानी अन्ताना गृहस्थको चार पाकर साधन आवश्यक है । मोक्ष या निर्वाणक पुरुषार्थको व्यरूप या सिद्ध करने योग्य मानके निर्माण प्रातिका लक्ष्य रखके अन्य तीन पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, कामका साथ करता है। दोनों निरोधन पहुंचे इसतरह तीनोंकी एकता का करता है ! साधन नहीं करता है जो द्रव्यको न पैदा कर सके भोग न कर सके ! इतना द्रव्य कमाने से नहीं जाता है जो धर्मको साधन न कर सके व शरीरको रोगी बनाल जिसमे काम घुषार्थ न कर सके | इतना इंद्रिय भोग नहीं करता है जिससे धर्मसाधनमें हानि पहुंचे व का लाभ न कर सके ।. अर्थ पुरुषाफे लिये अपनी योग्यता अनुसार नीचे लिखे छः कर्म करता है व इनमें सहायक होता है
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(१) असिकर्म-रक्षाका उपाय शस्त्र धारण करके रक्षाका काम।
(२) मसिकर्म - हिसाब किताब जमाखर्च व पत्रादिः लिखनेका
काम 1.