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योगसार टीका। [८३ तथैव भावयेदेहादसावृत्यात्मानमात्मनि । यथा न पुनरात्मानं देहे स्वप्नेऽपि योजयेत् ।। ८२ ।।
भावार्थ-शरीरादिसे हटकर अपने आत्माके भीतर अपने 'आत्माको इसतरह ध्यावे कि स्वनमें भी कभी शरीरादिमें अपना मन नहीं जोड़ें। सदा अपने अमाको शुद्ध, परद्रव्यके संगसे रहितध्यावे।
मार्गणा व गुणस्थान आत्मा नहीं है। मग्गणगुणठणइ कहिया क्वहारेण वि दिहि । णिच्छहणइ अप्या मुणहु जिय पान परमेट्ठि ॥ १७॥
अन्वयार्थ-(ववहारेण वि दिट्टि) केवल व्यवहारनयकी दृष्टिसे ही ( मग्गणगुणठाणइ कहिया) जीवको मार्गणा व गुणस्थानरूप कहा है (पिच्छइणइ ) निश्चयनयसे (अप्पा मुणहु) अपने आत्माको आत्मारूप ही समझ (जिय परमेष्टि पाबहु ) जिससे व सिद्ध परमेष्टीके या अरहंत परमेष्ठीके पदको पा सके ।
भावार्थ-व्यवहारनय पराश्रित है। दूसरे द्रव्यकी अपेक्षासे आत्माको कुलका कुछ कहनेवाला है। निश्चयनय स्वाचित है। आत्माको यथार्थ जैसाका तैसा कहनेवाला है। निश्चयनयते आत्मा म्वयं अरहन्त या सिद्ध परमात्मा है । आत्मा अभेव एक शुद्ध ज्ञायक है जैसे सिद्ध भगवान हैं। अपनेको शुद्ध निश्चयनयसे शुद्धरूम ध्याना ही साक्षात् परमात्मा होनेका उपाय है, यही मोक्षमार्ग है क्योंकि . जैसा ध्यावे वैसा ही हो जाये । समयसारमें कहा है
सुद्धं तु वियाणतो सुद्धमेवष्णय लहदि जीवो। जाणंतो दु असुद्ध असुद्धमेवप्पय कादि ॥ १७६ ॥