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यांमसार टीका। व्रतको जो आत्मज्ञान या आत्मानुभवकी चेष्टासे शुन्य है, सर्वज्ञ भगवानने अज्ञान तप व अज्ञान त कहा है।
समयसार कलशमें कहा है-- पदमिदं ननु कर्मदुरासदं सहजबोधकलामुलभं किल । तत इदं निजबोधकलाबलात्कलयितुं यततां सततं जगत् ॥११-७॥
भावार्थ-निर्वाणका पद शुभ क्रियाओंफे करनेसे कभी प्राप्त नहीं होसक्ता । वह तो सहज आत्मज्ञानकी कलासे सहजमें मिलता है। इसलिये जगत्फे मुमुक्षुओंका कर्तव्य है कि वे आत्मज्ञानकी कलाके बलसे सदा ही उसीका यन करें । तत्वानुशासनमें कहा है ...
पश्यन्नात्मानमैकारग्रामपयत्यार्जितान्मलान् ।
निरस्ताहंममीभावः संवृणोत्यप्यनागतान् ॥ १७८ ।। भावार्थ-~-जो कोई परपदार्थोमें अहंकार ममकारका त्याग करके एकाग्रभावसे अपने आत्माका अनुभव करता है यह पूर्व संचय किए हुए कर्ममलोंको नाश करता है तथा नवीन कर्मोंका संयर भी करता है।
इच्छारहित तप ही निर्वाणका कारण है। इच्छारहिउ सब करहि अप्पा अप्प मुहि । सउ लहु पावइ परमगई पुण संसार ण एहि ॥१३ ।।
अन्वयार्थ-(अप्पा) हे आत्मा ! (इच्छाराहियउ तव करहेि) यदि तू इच्छा रहित होकर तप करे ( अप्प मुणेहि) व आत्माका अनुभव करे (तउ लहु परमगई पावइ) सौ तु शीघ्र ही परम गतिको पावे (पुण संसार ण पहि) फिर निश्चयसे कभी ' संसारमें नहीं आवें ।