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६८] योगसार टीका।
-मोहबीजादतिद्वषो जीजान मुलांकुर. विष । लामाहाना मिन दाये उदेन निधि 12६ वधीत्य स्कले श्रुतं चिमुशास्त्र यो यो। यदीच्छसि भलं तयोरिह है लभजादिका ॥ छिनसि सुलपा. प्रसवगंब अन्याशयः । कार्य समुपलालासे सुरसमस्य धकं फलम् ॥ १.८० ॥
भावार्थ-आमाका स्वभाव ज्ञानमय है | उस्ल स्वभावकी प्राप्तिको ही मोक्ष कडून हैं, इसलिये मोक्षके छिकको ज्ञानकी भावना भानी चाहिये । जैसे वीजसे मूल व अंकुर होते हैं वैसे मोहके बीजमे रागद्वेष पैदा होते हैं । इसलिये जो इन गागडेपोको जलाना चाह उमे ज्ञानकी आग जलाकर उनको भत्म कर देना चाहिये । हे भव्य ! तु सर्व शास्त्रोको पढ़कर व चिरकालतक घोर तप तपकर यदि इन दोनोंका ल सांसारिक लाभ या पुजा प्रतिष्ठा आदि चाहता है नी तू जड़बुद्धि होकर सुन्दर सपम्पी वृक्षकी सड़को ही काट रहा है, किसतरह तु रसीले पके फलको अर्थात मोक्षक फलको पा सकेगा ?
श्री कुन्दकुन्दाचार्य भावपाहुडमें कहते हैंबाहिरसंगचाओ गिरिसरिदरिदण्ड आवासी। सबलो झागाझयमो निरसओ भंवर यायं ॥ ८॥
भावार्थ-जिनका भाव शुद्ध आत्मामें स्थिर नहीं है उनका बाहरी परिप्रहका स्याम पहाड़, नदी, नट, गुफा, कन्दरा, आदिका रहना, ध्यान व पठन पाठन सघ निरर्थक हैं :