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योगसार टीका। बांधकर नौमें प्रवेशिकमें जाकर अमिंद्र होजाता है । आत्मज्ञान विना वहांस चयकर संसार-भ्रमणमें ही रुलता है।
शुधोपयोग ही पाराव ने कार है। इस नत्वको भले प्रकार श्रन्दानमें रखकर अन्तरात्मा मोक्षमार्गी होता है तब इसकी दृष्टि हरसमय अपने आत्मामें रमणकी रहती है। यह आत्माको शांत गङ्गामें स्नान करना ही धर्म समझता है। इसके सिवाय सब ही मन, वचन, का यकी प्रवृत्तिको अपना धर्म न समझकर बंधका कारक अधर्म समझता है । व्यवहारमें शुभ क्रियाको धर्म कहते हैं परन्तु निश्चयस जो बन्च करे वह धर्म नहीं होसक्ता ।
जिस समय सम्यग्दर्शनका लाभ होता है उसी समय वह सर्व शुभ प्रवृत्तियोले उसी तरह उदास होजाता है। जैसा वह अशुभ प्रवृत्तियोंसे उदास है, वह न मुनिके व्रत न आत्रकके व्रत पालना चाहता है। परन्तु आत्मबलकी कमीमे जब उपयोग अपने आत्माके भीतर अधिक कालतक विर नहीं रहता है तब अशुभमे बचके लिये वह शुभ कार्य करता है। परन्तु उसे बंधकारक ही जानता है । भीनरी भावना यह रहती है कि का मैं फिर आत्माके ही साधमें रमण कर । मैं अपने चरसे छूटकर पर घरमें आगया, अपराधी हो गया। सम्यक्ती बन्धकारक शुभ कार्यों से कभी मोका साधन नहीं मानता है।
जिस साधनमे वीतराग परिणति झलके उसे ही मोक्षमार्ग जानता है । इसलिये वह शुभ कामोंको लाचारीमे करता हुआ भी मोक्षमार्गी है । निश्चय रत्नत्रय हो धर्म है, व्यवहार रत्नत्रय यद्यपि निश्चय रत्नत्रयके लिये निमित्त है नथापि बंधका कारण होनेसे वह निश्चयकी अपेक्षा अधम है | ज्ञानी आत्माके कार्य सिवाय अन्य कार्यमें जानेको अपना अपराध समझता है । ज्ञानमें ज्ञानकै रमणको