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योगमार टीका। [६१ परिणामोंसे ही कंध व मोक्ष होता है !
परिणामें बंधुति कहिद मोक्य नि सजि वियाणि । '. इउ जाणेविणु जीव तुई तह भावह परियाणि ॥१४॥
अन्वयार्थ--(परिणाम बंधुनि कहिट) परिणामोंसे ही कर्मका बंध कहा गया है. (तह जि मोक्ख वि वियाणि तसे ही परिणामि ही माझको जान (जीव) ई आत्मन् ! ( इउ जाणे विणु) ऐसा समझकर (तुहूं बह भाबहु परियाणि) तू उन भावोंकी पहचान कर
भारार्थ-आमा अाप है। अपने भाषर्कका कर्ता है। स्वभावसे यह शुद्ध भावका ही कता है । यह आत्मद्रव्या परिणमनशील है। यह मटिकमगिक समान है। स्मारकमपिके नीचे नंगका संयोग हो तो वह इस रंग कप लान्ट, होली, काश, अलकती है। यदि पर वस्तुका संयोग न हो तो वह स्फटिक निर्मल स्वरूप में झलकती है। इसी तरह इम आत्मामें ककि जुन्यक लिमिनसे विभावों में चा औपाधिक अशद्ध भादोंमें परिगमनकर्क शक्ति है : यदि कम्रे उदयका निमित्त हो तो वह अपने निर्मल शुद्ध भावमें ही परिणमन करता है । मोहनीय कर्मके उदयसे विभाव भाव होने हैं : उन औदायिक भावाने ही बन्ध होता है।
अशुद्ध भावोंफा निमित्त पाकर स्वयमं कर्मवर्गणा आठ कर्मरूप या सात कर्म या जाती हैं। उन्धकारक भाव दो प्रकारके होते हैं-शुभ भाव या शानोपयोग, अशुभ भाव वा अशुभोपयोग। मन्द कषायरूप भावोंको भोपयोग कहते हैं, ती कषायका भावको अशुभोपयोग कहते हैं। दोनों ही प्रकारके भाव अशुद्ध है, बन्धक ही कारण हैं | जहांतक कपायका रंच मार भी सदा है वहांतक कर्मका