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योगसार टीका। मार्गमें चारित्रकी अपेक्षा उपयोग पर द्रव्योंके सन्मुख रहता है। सातवेंसे ट्रेकर दसवें गुणस्थान तक साधुके निवृत्तिमार्ग ही है, प्रवृत्ति नहीं है, भ्यान अवस्था ही है | ___ इस तरङ् चौधेसे दश गुणस्थान तक दोनों निवृत्ति व प्रवृत्तिमार्ग यथासंभव होते हुथे भी अप्रत्यारण्यागादि कपायका उदय, चौधेमें प्रत्याख्यानादि कषायका उद्य, पचित्र में संम्बटन कषायका तीन उदय, छठेमें संचलनका मंद उदय, सातवेसे दश तक रहता है । भ्यानके समय इन कषायोंका उदय बहुत मंद होता है । प्रनिके समय सीब होता है । तथापि जितना कषायका अदय होता है वह तो कर्मको ही बांधता है। जितना रत्नत्रय भाव होता है वह संवर व निर्जरा करता है । बंध व निरा दोनों ही धाराण. साथ साथ चलती रहती हैं।
हरएक जीव गुणस्थानके अनुसार बन्धयोग्य प्रकृतियोंका बंध अवश्य करता है । निवृत्ति मार्गमें आस्थह होनेपर घानीय कौकी स्थिनि व उनका अनुभाग बद्भुत कम पड़ता है व अघातीयोंमें केवल शुभ प्रकृतियोंका ही अन्ध होता है, उनमें स्थिति कम व अनुभाग अधिक पड़ता है। प्रवृत्ति मार्गमें शुभोपयोगकी दशामें तो ऐसा ही होता है, किन्तु तीन करोयके उदयले अशुभोपयोग होनेपर घातीय कौंमें स्थिति व अनुभाग अधिक पड़ेगा न अघातीयमें पापकर्मीको अधिक स्थिति व अनुभाग लिये हुए बाँधेगा।।
प्रयोजन मह है कि शुभ या अशुभ दोनों ही भाव अशुद्ध है बन्धहीके कारखा हैं । मोक्षका कारण एक झुद्ध भाव है, वीतरागभाव है, शुद्धात्माभिमुख भाव है ऐसा प्रधान ज्ञानीको रखना चाहिये।
समयसारमें कहा हैअझवसिदेण बन्धो सते मारे हि माब मारे हिं । एसो बन्धसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ।। २७४ ॥