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६२] योगसार टीका।
मिन्दादति उचिपूर्वक भालशिसे भिषय भेषा करना है। सम्यक्ती गृहस्थ अनासक्तिसे व कर्मों के उदयमें लाचार होकर विषयभोग करता है व भावना भाता है कि यह कर्मका विकार शीघ्र दूर हो तो ठीक है। भोगोंसे पूर्ण वैराग्य भाव ज्ञानीके होता है। अज्ञानीक व मिथ्यारपिके तप करते हुए भी भोगोंसे राग भाच रहता है, इसीसे उसका संसार बढ़ता है। वह संसारसे पार होनेका .मार्ग नहीं पाता है।
समयसारजीमें कहा हैरत्तो बंधहि कम्मं मुंचदि जीवो विराग संपण्णो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेनु मा रज्ज ।। १६० ।। परमट्टो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी । तम्हि टिदा सम्भावे मुगिणों पार्वति णित्याणं ।। १६१ ॥ परमम्मिय अठिदो जो कुणदि तच रदं च धारयदि । तं सन्वं बालतवं बालबदं विति सत्याहु ॥ १६२ ॥
भावार्थ-श्री जिनेन्द्रका ऐसा उपदेश है कि रागी जीव कर्मों में यन्धता है। वैराग्यसे पूर्ण जीव कर्मोंसे छूटता है । इसलिये बंधक कारक शुभ व अशुभ कार्योंमें राग नहीं करो।
निश्रयसे परम पदार्थ एक आत्मा है। वहीं अपने स्वभावमें एक ही काल परिणमन करनेसे व जाननेसे समय है, वही एक ज्ञानमय निर्विकार होनेसे शुद्ध है, वही स्वतन्त्र चैतन्यमय हुनेसे केवली है, बही मननमात्र होनेसे मुनि है, वही ज्ञानमय होनेसे ज्ञानी है । जो मुनिगण ऐसे अपने ही आत्माके स्वभावमें स्थिर होते हैं, आत्मस्थ होते हैं वे ही निर्वाणको पाते है। जो कोई परम पदार्थ अपने आत्माकी स्थिति न पाकर तप तथा व्रत पालता है इस सर्व तप या