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योगसार टीका |
आत्मज्ञानी ही निर्वाण पाता है ।
अप्पा अप्पर जड़ मुणहि तउ णिव्वाण लहेहि । पर अप्पा जउ मुणिहि तुहुं तहु संसार भमेहि ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ - ( जइ ) यदि (अप्पा अपन मुहिनो आत्मा समझेगा ( तो शिव्याण लहेहि ) तो निर्माणको पावेगा (जउ ) यदि ( पर अप्पा मुणहि ) परपदार्थोंको आत्मा मानेगा ( तह तुहं संसार भमेहि) तो तू संसार में भ्रमण करेगा |
भावार्थ -- निर्वाण उसे कहते हैं जहां आत्मा सर्व रागद्वेप, मोहादि दोषों से मुक्त होकर व सर्व कर्म-कलंक मे छूटकर शुद्ध सुवर्णके समान पूर्ण शुद्ध होजावे और फिर सदा ही शुद्ध भावोंमें ही कल्लोल करे व निरन्तर आनन्दामृतका स्वाद लेवे। वह आत्माका स्वाभाविक पद हैं | इस निर्वाणका साधन भी अपने ही आत्माको आत्मारूप समझकर उसीका वैसा ही ध्यान करना है ।
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हरएक कार्यके लिये उपादान और निमित्त दो कारणोंकी जरूरत है। मूल कारणको उपादान कारण कहते हैं जो स्वयं कार्यरूप होजावे । सहायक कारणोंको निमित्त कारण कहते हैं। बड़े बनाने में मिट्टी उपादान कारण है, कुम्हार चाक आदि निमित्त कारण हैं । कपड़े. बनाने में कपास उपादान कारण है, चरखा करधा आदि निमित्त कारण हैं। सुवर्णकी मुद्रिका बनाने में सुवर्ण उपादान कारण है. सुवर्णकार, उसके शस्त्र व अग्नि आदि निमित्त कारण हैं।
इसीतरह आत्मा शुद्ध होने में उपादान कारण आत्मा ही है, निमित्त कारण व्यवहार रत्नत्रय हैं, मुनि व श्रावकका चारित्र है, बारह तप हैं, मन, वचन, कायकी क्रियाका निरोध है । निमित्तके होते हुए उपादान काम करता है। जैसे अग्निका निमित्त होते हुए