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योगसार टीका । [५७ आत्मा तो स्वभावसे सर्व चेष्टारहित निश्चल परम कृतकृत्य है।
इसतरह आत्माको केवल आत्मारूप ही टंकोत्कीर्ण झातादृष्टा 'परमानन्दमय समझफर उसने रमया सरनेका अत्यन्त प्रेम होजाना अन्तरात्माका स्वभाव बन जाता है | तीन लोककी संपत्तिको वह आदरसे नहीं देखता है, उसका प्रतिष्ठाका स्थान केवल अपना ही शुद्ध स्वभाव है । इसी कारणसे सम्यम्हटी अन्तरात्माको जीवमुक्त कहते हैं । यह यथार्थ ज्ञानसे व परम वैराग्यसे पूर्ण होता है। परम तत्वका एक मात्र रुचिबान होता है । उसकी दृष्टि एक शुद्ध आत्मतत्वपर जम जाती है । समयसारमें कहा है
पुमालकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हयदि एसो । ण हु एस मज्झ भावो जाणगभावी दु अमिको ॥ २०७॥ उदयविवागो विविहो कम्माणं वरिणदो जिपवरेहिं । णदु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को ।। २१० ॥ उप्पण्णोदयभागे विओगबुद्धीय तस्स सो णिचं । कंखामणागदम्सथ उदयास ण कुव्वदे णाणी ॥ २२८ ।।
भावार्थ-राग एक पुद्गलकम है, उसके फलसे आत्मामें राग भाव होता है । यह कर्मकृत विकार है, मेरा स्वभाव नहीं है, में तो एक ज्ञायक भावका धारी आत्मा हूं। जिनेन्द्रोंने कहा है कि कर्मों के उदयस जो नाना प्रकारका फल होता है वह सब मेरे आत्माका स्वभाव नहीं है। मैं तो एक ज्ञायक भाषका धारी आत्मा हूं। कर्मोदयसे प्राम वर्तमान भोगोंमें भी ज्ञानीके आदर नहीं है वियोग बुद्धि ही है । तब ज्ञानी आगामी भोगोंकी इच्छा कैसे कर सकता है ?