________________
योगसार टीका। आत्मा अपने ही शान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणोंका स्वामी है । इसका धन इसकी गुणसम्पदा है, इसका निवास या घर इसीका स्वभाव है । इस आस्माका भोजनपान आदिक आनन्द अमृत है। आत्मामें ही सम्यग्दर्शन हैं, आत्मामें ही मभ्यग्ज्ञान है, आत्मामें ही सम्यक्चारित्र है, आत्मामें ही सम्यक् नप है, आत्मामें ही संयम है, आत्मामें ही त्याग हैं, आस्मामें ही संबर तत्व है, आत्मामें ही निर्जरा है, आत्मामें ही मोक्ष है । जिसने अपने उपभोगको आत्मामें जो विषा उसने मागको लिया
आत्मा आपहीसे आपमें क्रीड़ा करता हुआ शन; २ शुद्ध होता हुआ परमात्मा होजाता है । जितनी मन, वचन, कायकी शुभ व अशुभ क्रियाएँ हैं वे सब पर हैं, आत्मा नहीं हैं | चौदह, गुणस्थानकी सीढ़ियां भी आत्माका निज स्वभाव नहीं है । आत्मा परम पारणामिक एक जीवत्वभावका धनी है, जिसका प्रकाश कमरहित सिद्ध गतिमें होता है । जहाँ सिद्धत्वभाव है वहाँ जीवत्वभाव है । अंतरात्मा अपने आत्माको परभावोंका अकती व अभोक्ता दरखता है। वह जानता है कि आत्मा ज्ञानचेतनामय है .अर्थात् यह मात्र शुद्ध ज्ञानका स्वाद लेनेवाला है। इसमें रागद्वेषरूप कार्य करनेका अनुभत्ररूप कर्मचेतना तथा सम्बदुःख भोगनेरूप कर्मफलचेतना नहीं हैं।
आत्माका पहचाननेवाला अन्तरात्मा एक आत्मरसिक होजाता है, आन्मानन्दका प्रेमी होजाना है, उसके भीतरसे विषयभोगानित सुत्रकी श्रद्वा मिट जाती है, वह एक आत्मानुभत्रको ही अपना कार्य समझता है, उसके सिवाय जो व्यवहारमें गृहम्ध या मुनि अंतरात्माको कर्तव्य करना पड़ता है वह सब मोहनीय कर्मक उदयकी प्रेरणा होता है। इसीलिये ज्ञानी अन्तरात्मा सब ही थर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थकी चेष्टाको आत्माका स्वाभाविक धर्म नहीं मानता है।