________________
योगसार टीका।
[ ३५ निर्विकार, निरक्षन, कृतकृत्य, इच्छारहित, शरीररहित, पचनरहित, मनके संकल्प विकल्परहित, अमूर्तीक, अविनाशी है | इस बातको जो नहीं समझता है और जो कुछ भी आत्माका निज स्वभाव नहीं है उसको अपना स्वभाव मान लेता है, वह आत्मासे बाहरकी वस्तुओंको आत्माकी मानना है । इसलिये उसको यकिरात्मा कहते हैं। अपने आत्माकी सत्ता सर्व आत्माओंमे जुड़ी है, सर्व पुगलोंसे जुदी है, धर्म, अधर्म, आकाश, कालसे जुदी है, इस बातको बहिरात्मा नहीं समझता । वह इंद्रिय सुखको ही सबा सुख मानता है। उसके जीवनका ध्येय विषयभोग व मानपुष्टि रहता है । यह धर्म भी इसी हेतुसे पालन करता है । यदि कुछ शुभ काम करता है तो मैं दानका, पूजाका, परोपकारका, श्रावकके प्रतोंका, मुनिके व्रतोंका कर्ता है। यदि कुछ अशुभ काम करता है तो मैं हिंसा कर्ता, असत्य बोलनेकी चतुराईका कर्ता, ठगीकर्ता, व्यभिचारकर्ता व हानिकर्ता प्रवीण पुरुष हूं, इस तरह के अहंकारसे मूर्छित रहता है । आत्माका स्वभाव तो न शुभ काम करनेका है, न अशुभ काम करनेका है। आत्मा स्वभावसे परका कता नहीं है। यह बहिरात्मा अपनेको परका कर्ता मान लेता है। __ उसी तरह पुण्यके उदयसे सुख मिलने पर मैं सुखका व पापके उदयसे दुख होनेपर मैं दुःस्त्रका भोगनेवाला हूं। मैंने संपदा भोगी, राज्य भोगा, पंचेन्द्रियकं भोग भोगे, इस तरह परका भोक्ता मान वैठता हूं। आत्मा स्वभावसे अपने ज्ञानानन्दका भोका है, परका भोक्ता नहीं है, इस बातको बहिरात्मा नहीं समझता है |
मन, वचन, काय, पुगलकृत विकार व कर्मोके उदयसे उनकी क्रियाएं होती हैं । यह अहिरात्मा इन तीनोंको व इनकी क्रियाओंको अपनी क्रिया मान लेता है। अनेक शास्त्रों को पढ़कर मैं पंडित, इस