________________
योगसार टीका। - [४९ जन या वीतराग है, ज्ञानमय है, परमानंद स्वभावका धारी है। वही शिव है, शांत है। उसके शुद्ध भावको पहचान, जिसको वेदोंके द्वारा, शाखोंक द्वारा, इन्द्रियोंके द्वारा जाना नहीं जासकता । मात्र निर्मल भ्यानमें वह झलकता है। वही अनादि, अनन्न, अविनाशी, शुद्ध आत्मा परमात्मा है । समाधिशनको कहा है
निर्मल: केवल: शुद्धी विविक्त: प्रभुरव्ययः ।
परमेष्ठी परास्मति परमात्मश्वरो जिनः ॥ ६॥ भावार्थ-परमात्मा कर्ममलरहित हैं, केवल स्वाधीन हैं, साध्यको सिद्ध करके सिद्ध हैं. सब द्रव्योंकी सत्तासे निराली सत्ताका धारी हैं, वहीं अनन्तबीय धारी प्रश्न हैं. वही किया है. गरमसने रहनेवाला परमेष्ठी हैं. वही श्रेष्ठ आत्मा हैं. वही गुद्ध गुणरूपी ऐश्रयका धारी ईश्वर हैं, वही परम विजयी जिनेन्द्र हैं ! ___ श्री समन्तभद्राचार्य स्वयंभूस्तोत्रमें कहते हैंन पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ त्रिवान्नर ।
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः पुनातु चित्त दुरिता अनन्यः ॥५॥ • दुरितमलकलङ्कमटकं निरुपमयोगबलेन निर्दहन । अभवदमवसौरममान् भवान भवतु ममापि भवोपशान्तये ।।१५।।
भावार्थ- परमात्मा वीतराग हैं, हमारी पूजासे प्रसन्न नहीं होते । परमात्मा वर रहित हैं, हमारी निन्दासे अप्रसन्न नहीं होते। तथापि उनके पवित्र गुणोंका स्मरण मनको पापके मैलर्स साफ कर देता है । अनुपम योगाभ्यासमे जिसने आठ कर्मके कठिन कलङ्कको जला डाला है व जो मोक्षक अतीन्द्रिय सुरुका भोगनेवाला है वही परमात्मा है | मेरे संसारको शांत करने के लिये वह उदासीन सहायक हैं। उसके ध्यानसे मैं संसारका क्षय कर सकंगा ।