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योगसार टीका ।
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शुद्धोपयोग भावरूप ही आत्मा है। शुकुध्यान जो साधुके होता है वह परम शुद्धोपयोग नहीं है, क्योंकि दशवे गुणस्थान तक तो मोहका उक्ष्य मिला हुआ है। ग्यारहवें बारहवें में अज्ञान है, पूर्ण ज्ञान नहीं, - इसलिये इस अपरम शुद्धोपयोगको भी आत्माका स्वभाव मानना मियाभाव है। श्री समयसार में कहा है -
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परमाणुमित्तियं वि हु रागाद्रीण तु विज्जदे जस्स ।
वि सो जाणदि अप्पा गयं तु सव्यागमधरो वि ॥ २१४॥ भावार्थ - जिसके भीतर परमाणु मात्र थोड़ासा भी अज्ञान सम्बंधी रागभाव है कि परद्रव्य या परभाव आत्मा है वह श्रुतकेवली के समान बहुत शास्त्रोंका ज्ञाता है तौभी वह आत्माको नहीं
| पहचानता है, इसलिये बहिरात्मा है ।
पुरुषाधीसद्धपायमें श्री अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैंपरिणममाणो नित्यं ज्ञानविवत्तैरनादिसन्तत्या | परिणामानां स्वेषां स भवति कर्त्ता च भोक्ता च ॥ १० ॥ जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ २२ ॥ परिणममाणस्य चितचिदात्मकैः स्वयमपि स्वर्भावैः । भवति हि निमित्तमात्रं पौगलिकं कर्म तन्यापि ॥ १३ ॥ एवमयं कर्मकृतैमासमा हिलोऽपि युक्त इव ।
प्रतिभाति वालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम् ॥ १४ ॥ भावार्थ - यह जीव अनादिकालकी परिपाटी से ज्ञानावरणादि कर्मो के उदय के साथ परिणमन या व्यवहार करता हुआ जो अपने अशुद्ध परिणाम करता है उनहीका यह अज्ञानी जीव अपनेको कर्ता तथा भोक्ता मान लेता है कि मैंने अच्छा किया या बुरा किया, या