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योगसार टीका । [५७ जनों के परिणाम निर्मल होजाते हैं, राग द्वेषके मैलसे रहित होजाते हैं, भावोंकी शुद्धिसे पाप स्वयं कट जाते हैं। शुभोपयोगसे पुण्य स्वयं बंध जाता है । जैसे जड़ शास्त्रोंके पनने व सुननेसे परिणामोंमें ज्ञान व वैराग्य आजाता है वैसे परमात्माकी पूजा भक्तिसे परिणामोंमे शुद्ध आत्माका ज्ञान व संसारमे वैराग्य छाजाता है । परमात्मा उदासीन निमित्त है, प्रेरक निमित्त नहीं है। हम सब उनके आलंबनसे अपना भला कर लेते हैं। परमात्मा किसीको मुक्ति भी नहीं देते । हम तो परमात्माकी भक्तिके द्वारा जब अद्वैत एक निश्वर एपने ही भारत में होकर परम समाधिको अभ्यास करेंगे तव ही काँसे रहित परमात्मा होंगे। इस कारणसे परमात्मा निर्मल है।
परमात्माके साथ तेजस, कार्मण, आहारक, वैक्रियिक या औदारिक किमी शरीरका सम्बंध नहीं होता है तथापि वह अमूर्तीक ज्ञानमय आकारको धरनेवाला होता है । जिस शरीरसे छुटकर परमात्मा होबा है उस शरीरमें जैसा ध्यानाकार था वैसा ही आकार मोक्ष होने पर बना रहता है। आकार विना कोई वस्तु नहीं होसक्ती है। अमूर्तीक द्रव्योंका अमूर्तीक व मूर्तीक पुदल रचित द्रव्योंका मृर्तीक आकार होता है।
परमात्मा शुद्ध है, उसमें कर्ता कर्म आदिके कारक नहीं हैं तथा वह अपने अनंत गुणपयायोंका अस्यण्ड अमिट एक समुदाय है जिसमें से कोई गुण छुट नहीं सक्ता है न कोई नवीन गुण प्रवेश कर सक्ता है । उसी परमात्माको जिनेन्द्र कहते हैं। क्योंकि जगतमें कोई शक्ति नहीं है कि जो उसको जीत सके व उसे पुनः संसारी या विकारी बना सके । वह सदा विनयशील रहता है । विना कारगाके रागद्वेष में नहीं फंसता है, न पाप पुण्यको बांधता है। .