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योगसार टीका। माया है व ईश्वर ही जगतका कर्ता है व जीवोंको सुख दुःखका फल देता है, ऐसा माननेवाला है।
गयका स्वभाव ध्रुव होकर परिणमनशील है। यदि ऐसा न हो तो कोई जगतो काम हो न स मा या तो यस्तुको सर्वथा नित्य या अपरिणमनशील मानता है या सर्वथा अनित्य या परिणमनशील मान लेता है। कभी बहिरात्मा हिंसाके कार्यों में धर्म मानकर पशुबलि करके व रात्रिभोजन करके व नदियोंमें स्नान करके धर्म मान लेता है । वीतरागताकी पूजा न करके शृंगारसहित देवताओंकी व शखादि सहिन देवताओंकी व संसारासत देवताओंकी पूजा करनेसे पुण्यबन्ध मान लेता है व मोक्ष होना मान लेता है। किन्ही बहिरात्माओंको आत्माकी पृथक सत्तापर ही विश्वास नहीं होता है | बद्द पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुसे ही आत्माकी उत्पत्ति मान लेता है।
कोई बहिरात्मा आत्माको सदा ही रागी, द्वेषी या अल्पज्ञ रहना ही मान देता है | वह कभी वीतराग सर्वज्ञ हो सकेगा ऐसा नहीं मानता है । यह पहिरामा मुद्ध होता हुआ मिश्याश्रद्धान, मिथ्याशान, मिथ्याचारित्रसे मिथ्यामाई होता हुआ संसारमें अनादिकाल भटकता आरहा है व भटकला रहेगा । जिस मानवको सागर पार करनेवाली नौका न मिले वह सागरमें ही गोते खाते २
ननेवाला है | बहिरात्माके समान कोई अज्ञानी व पापी नहीं है । जिसको सीधा मार्ग न मिले, उल्टे रास्ते पर चले वह सच्चे ध्येयपर किसतरह पहुंच सत्ता है ?
श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती गोम्मटसार जीवकांड में कहते हैंमिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदसणो होदि । ण य धम्मं रोचेदि हु महर खु रसं जहा जरिदो ॥ १७ ॥