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योगसार टीका 1 अभिमानमें चूर्ण होकर परफा तिरस्कार करके प्रसन्न होनेत्राला बहिरात्मा होता है । वह यह घमंड़ करता है कि मैं अमुक वंशका हूं, मैं ऊंचा हूं, मैं बत्र रूपयान हूँ, मैं बड़ा बलवान हूं, मैं बड़ा धनवान हूं, मैं बड़ा विद्वान हूं, मैं बड़ा तपस्वी हूं, मैं बड़ा अधिकार रखता हूं, में चाहे जिसका बिगाड़ कर सता हूं, मेरी कृपास सेकड़ों आदमी पलते हैं, इस अहंकारने बहिरात्मा चुर रहता है।
बहिरात्माकी दृष्टि अन्धी होती है, यह जिनेन्द्रकी मूर्तिमें स्वानुभवरूप जिनेन्द्रकी आत्माको नहीं पहचानती हैं । छनचमरादि विभूति सहित शरीरकी रचनाको ही अरहंत मान लेता है । गुरुकी पूजा भक्ति होती है, गुरु बड़े चतुर वक्ता हैं, गुरुका शरीर प्रभावशाली है, गुरु बड़े विद्वान हैं, अनेक शास्त्रांक ज्ञाता हैं, इ: गुरुमहिमाक्री तरफ ध्यान देता है। गुरु आत्मज्ञानी हैं या नहीं, इस भीतरी तत्मपर वदिशामा ध्यान नहीं देता है। . .
शालमें रखना अच्छी है, कशन मनोहर है, न्यायकी युक्तिम अकाटा है, अनेक मोम पूर्ण है, ऐसा समझना है, वह शाःत्रके कथनमें आयात्मस्तक नहीं खोजता है न उनका पान करता है । बहिगलाका नोरन विषय तथा कपायको पोखने में व्यतीत होना है | बह भाकरके भी विषयसुखको सामग्री को ही चाहना है | इसी भावनाको लिये हम भारी तपस्या साचता है।
में शुद्ध होकर सदा मान्मीक सुख भोग सरें, इस भात्रनामे शून्य होता है. : बहिरालाको मिथ्याय कम उदयवश सबा तत्वं नहीं दिखता है। यह भितर निकि शात्रोंको समझकर यथार्थ जिन भाषित तत्वोपर श्रद्धा नहीं लाता है ! लोकमें छः द्रव्योंकी सत्ता होते हुए भी केवल एक ब्राह्ममय जगत है । एक परमात्मा ईश्वरके सिवायं कुछ नहीं है, यह सब उसीकी रचना है, उसीका रूपान्तर है, उसीकी
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