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योगसार टीका। त्यागनेयोग्य है व अपना ही शुद्ध जीव द्रव्य ग्रहण करनेयोग्य है। तथा सच्चे देत्र, शास्त्र, गुरुका लक्षण जानकर उनपर विश्वास लाये । इसतरह आत्माको व परपदार्थों को ठीक २ समझे । शुद्ध निश्चयनयसे यह भलेप्रकार जान ले कि मैं एक आत्मा द्रव्य हूं, सिद्धके समान हूँ, ३ ले ही खत में पnिi kोबास मादि भावोंका कर्ता नहीं हूं व सांसारिक सुख व दुःखका भोगनेवाला हूं। मैं केवल अपने ही शुद्ध भावका कर्ता र शुद्ध आत्मीक आनंदका भोक्ता हूं, मैं आठ कमें शरीरादिसे व अन्य सर्व आत्मादि द्रव्योंसे निराला हूं । तथा अपने गुणोंसे अमेट है । वह अपने आत्माको ऐसा समझे जैसा श्री कुन्दकुन्दाचायने समयसारमें कहा है
जो पस्सदि अप्पाणं अबुद्धपुढे अगण्णय णियदं ।
अविसेसनसजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥ १६ ॥ भावार्थ-जो कोई अपने आत्माको पाँच तरहसे एक अग्वड शुद्ध द्रव्य समझे ।
(१) यह अवद्धस्पृष्ट है-न तो यह कौले यधा है और न बाद काशित है।
(२) यह अनन्य है-जैस कमल जलसे निर्लेप है, वह सदा एक आत्मा ही है, कभी नर नारक देव तियच नहीं है। जैसे मिट्टी अपने बने बर्तनों में मिट्टी ही रहती है ।
(३) यह नियत है-निश्चल है । जैसे पवनके कोरेक बिना समुद्र निश्चल रहता है वैसे यह आत्मा की उदयके विना निश्चल है।
(४) यह अविशष या सामान्य छै-जैसे सुवर्ण अपने पीत, भारी, चिकने आदि गुणोंसे अमेद व सामान्य है वैसे यह आत्मा झाम, दर्शन, सुख, वीर्यादि अपने ही गुणोंसे अभेद या सामान्य है, एक रूप है।