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योगसार टीका। श्री नागसेन मुनि तत्वानुशासनमें कहते हैंशबदनात्मीयेषु स्वतनुप्रमुखेसु कर्मजनितेषु । आत्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देहः ॥ १४ ॥ ये कर्मकृता भावाः परमार्थनयेन चात्मनो भिन्नाः । तत्रात्माभिनिवेशोऽहंकारोऽहं यथा नृपतिः ॥ १५ ॥ तदर्थीनिन्द्रियैगृहन् मुखति द्वेष्टि रज्यते ।। ततो बंधो भ्रमत्येवं मोहव्यूहगतः पुमान् ।। १०॥
भारार्थ-बहिरात्मा मिथ्यानी जीत्र ममकार व अहंकारके दोपोंसे लिप्त रहता है। शरीर, धन, परियार, देश-प्रामादि पदार्थ जो सदा ही अपने आत्मासे जुदे हैं व जिनका संयोग कर्मके उदयमे हुआ हैं उनको अपना मानना ममकार है । जैसे यह शरीर मेरा है। जो कर्मके उदयसे होनेवाले रागादि भाव नियनयमे आत्मासे भिन्न हैं उन रूप ही अपनेको रागी, द्वेषी आदि मानना अहंकार हैं। जैसे मैं राजा हूं, यह प्राणी इन्द्रियोंसे पदार्थोकी जानकर उनमें मोह करता है, राग करता है, द्वेष करता है, तब कौंको बांध लेता है, इसतरह यह वहिरात्मा मोड़की सेनामें प्राप्त हो, संसारमें भ्रमण करता रहता है।
अन्तरात्माका स्वरूप। जो परियाणाइ अप्प पर जो परभाव चएइ । सो पंडिङ अप्पा मुर्हि सो संसार मुण्ड ।। ८ ।। अन्वयार्थ-(जी अप्प परु परियाणइ) जो कोई आत्माको और परको अर्थात् आपसे भिन्न पदार्थोंको भलेप्रकार पहचानता है