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योगसार सका। मिच्छाइट्ठी जीवो उबइट पवयणं ण सद्दहदि । सदहदि असभा उबटुं वा अणुबइठं ॥ १८ ॥
भावार्थ-मिथ्यात्व कर्मके फलको भोगनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानी होता है । उम उसी तरह धर्म नहीं रुचता है जिस तरह ज्वरसे पीड़ित मानवको मिष्ट रस नहीं सुहाता है। ऐसा मिथ्यादृष्टी जीव जिनेन्द्र कथिल तत्वोंकी श्रद्धा नहीं लाता है | अयथार्थ तत्वोंकी श्रद्धा परके उपदेशस या विना उपदेशक करना रहता है | श्री कुन्दकुन्दाचार्य दसणपाहुडमें कहते हैं-- दसणभट्टा भट्टा दंगणभट्टम्स गस्थि णिव्वाणं । सिझंति चरियभट्टा दसणभट्टा ण सिझंति ॥ ३ ॥ सम्मत्तरयणभट्टा जाणता बहुविहाई सस्थाई । आराहणाविरहिया भमति तत्व तत्येव ॥ ४ ॥ सम्मत्तविरडिया को मुड वि उमा तवं चता । ण लहंति कोहिलाई अवि वाससहस्सकोडीहि ॥५॥
भावार्थ-जिनका श्रद्धान भ्रष्ट है वे ही भ्रष्ट है क्योंकि दर्शनभ्रम बहिरात्माको कभी निबाणका लाभ नहीं होगा। यदि कोई चारित्रभ्रष्ट हैं परंतु वहिरात्मा नहीं है तो वे सिद्ध होसकेंगे । परन्तु जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं ये कभी मोल नहीं पासकेंगे । जिनको सम्यग्दर्शनरूपी राकी प्राप्ति नहीं है, वे नानाप्रकारके शास्त्रोंको जानते हैं, तीमी स्वयकी आराधनाके विना वारवार संसारमें भ्रमण ही करेंगे । जो कोई सभ्यदर्शन में अन्य बहिरात्मा हैं वे करोड़ों वर्षतक भयानक कठिन तपको आचरण करते हुए भी रत्नत्रयक लाभको या आस्मानुभवको नहीं पासकते हैं।