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योगसार टीका। [२५ तीनों शरीर पुतुल द्रव्य बने हुये हैं, आत्माके स्वभावसे बिलकुल विपरीत है। ___स्थल दीखनेवाला औदारिक शरीर है जो माता, पिताके रज वीर्य से बना है। दो अनादिकालसे प्रवाह रूपसे चले आनेवाले तेजस शरीर और कर्मिण रीर है। आट कममय कार्मणशरीरक विषाकसे जो जो फल । अवस्था व विकार आत्माकी परिणतिमें होते हैं वे सबकी आत्माके स्वभावसे भिन्न हैं । झानावरणादि चार घातीय कमांक कारण अज्ञान व मोह, रागद्वेष आदि भाषकर्म होते हैं व अघातीय काँक कारण शरीर व चनन अचेतन पदार्थों का सम्बन्ध होता है, वे मब ही भिन्न हैं। जीयोंकी उन्नति करनेकी चौदह सीढ़ियां है, जिनको गुणस्थान कहते हैं, वे सब भी शुद्ध आत्मासे भिन्न हैं।
गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कपाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संशित्व, आहार ये चौदह मार्गणार हैं सो भी शुद्ध जीवका स्वभाव नहीं है | शुद्ध जीव अग्लंड व अमेद है। सहज झान व सज दान ध सहज वीथ व सहज मुक्का अमिट व अभेद समृा है। सांसारिक अवस्थाई शुद्ध आत्मामे भिन्न हैं। इन्द्रपद, चक्रवर्तीपद, तीर्थकरपद ये सब कर्मकृत उपाधियां हैं। आत्मा इन सबमे भिन्न निरञ्जन प्रभुदेव है।
तत्वार्थस्त्र में जीरोंके पांच भाव व उनके भेद वेपन भाव वताए हैं, उनमें शुद्ध आत्माके केवल क्षायिक भार और पारणामिक भाव है-औपशामिक, क्षयोपशमिक, औदायिक तीन भाव नहीं है। पनमें से जो जायिक भाष अर्थात नौ लब्धियों व एक जीवत्व पारिणामिर भात्र, इसतरह केवल दस भात्र जीवके हैं शंप ४३ नेतालीस नी हैं।
सिद्धके समान आस्माका व्यान करना चाहिये । भेद विज्ञानके