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योगसार टीका |
मोक्षमुखका कारण आत्मध्यान
है I
जड़ बीउ चरगइगमणु तउ परभाव चवि ।
अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिवसुक्ख लहेवि ||५|| अन्वयार्थ - (जइ) जो (चउगइगमणु बीहड) चारों गतियो के भ्रमण भयभीत है (उ) (पराव ) परभावों को छोड़ दे ( स्पिड अप्पा झायहि ) निर्मल आत्माका ध्यान कर ((जेम) जिससे (सिक्ख लहेोहे) मोक्षके सुखको तु पासके ।
भावार्थ- जैसा पहले दिखाया जाचुका है चारों ही गतियोंमें शारीरिक व मानसिक दुःख हैं । सुखकारी व स्वाभाविक गति एक मोड़ गति हैं, जहाँ आत्मा निश्चल रहकर परमानन्दका भोग निरंतर करता रहता है, जो आत्मा बिलकुल शुद्ध निराला योगला रहता है । मन सहित प्राणीको अपना हित व अति ही विचारना चाहिये । यदि आत्मा के ऊपर दयाभाव है तो इसे दुकबीच नहीं डालना चाहिये। इसे भव-भ्रमण से रक्षित करना चाहिये | और इसे जितना शीघ्र होसके, मोक्षके निराकुल भाव में पहुंच जाना चाहिये । तब इसका उपाय श्री गुरुने बताया है कि अपने ही शुद्ध आत्माका ध्यान करो ।
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ज्ञान शक्ति अपने आत्माके साथ जिन जिनका संयोग है उन उनको आत्मा नित्य विचार करके उनका मोह छोड़ देना चाहिये। मोक्ष अपने ही आत्माका शुद्ध स्वभाव है त उसका उपाय भी केवल एक अपने ही शुद्ध आमाका व्यान है । जैसा घ्यावे या होजाये। यदि हम एक मानवको आत्माका भेदविज्ञान करें तो यह पता चलेगा कि यह तीन प्रकारके शरीरोंके साथ है। वे