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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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प्राप्ति २-७९ से 'त्र' में स्थित '' का लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिए में 'ख' के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम से दोनों प भुआ-पन्तं भुज-यम् सिद्ध हो जाते हैं।
पतिगृहम् संस्कृत रूप है। इसके
और पहर होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' अवेश;
कई 'त' का लोपः १-४ से शेष 'इ' को वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति १-१९८७ से आदेश प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' को प्राप्त ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन मैं अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' के स्थान पर प्रस्थय की प्राप्ति और १-२३ मे प्राप्त 'म्' का अनुश्वार होकर कम से दोनों रूप पई-हरं और पहरं सिद्ध हो जाते हैं। घे गुचनम् संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप वेनू और वे होते हैं। न-१-२०३ से 'ण' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति: १-४ से 'ज' को विकरूप से 'ऊ' की प्राप्तिः १-२२८ सेन के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति ३२५ सेप्रमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रस्थय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों
दूध और
सिद्ध हो जाते हैं।
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नितम्ब - शिला- स्खलित-वीषि - मालस्य संस्कृत वाक्यांश रूप है। इसका प्राकृत रूप निजम्ब--सिल खलिश - बीड -मालम्स होता है। इसमें सूत्र संख्या - १-१७७ से दोनों 'त्' वर्जी' का लोग; १-२६० से 'शु' के स्थान पर 'सु' को प्राप्ति १०४ मे 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति ५-७७ से हलत जन प्रथम '' का ११०७सेच का कोर और १-१० से पछी-विभक्ति के एक वचन में 'इस' के स्थानीय प्रत्यय 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप निम्ब-सिल-खलिय
- मालरस सिद्ध हो जाता है।
यमुनातटम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप जग पई और जगर होते हैं। इनमें सूत्र संख्या१-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति १-१७८ से प्रथम 'म्' का लोप होकर स्वर पर अनुनासिक की प्राप्ति १-२२८ से 'न' के स्थान पर '१४से प्राप्त 'गा' में हिस्व'' के स्थान परकरूप से स्वस्वर' की १-१७७ से 'लू' का लोन १-१८०हुए 'तू' में से १-१९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति २२५ से प्रथमा विभक्ति के एक
रहे हुए 'अ' को 'प' की प्राप्ति
वचन में अकारान्त नपुंसक में सिं' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त '' का
अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप जप और माय सिद्ध हो जाते हैं।
इसके प्राकृत रूप इस बर नई
देते हैं। इनमें संख्या सूत्र १-४ से शेष दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति २-९८ से. '' को 'त' को त३-२५ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर '' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त'' का अनुसार
नदी
१- १७७ का
२-७९ ''कालो