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महावीर : मेरी दृष्टि में जाएगा, शिथिल हो जाएगा। ले जाते हैं वे भी विश्राम की ओर लेकिन उनका मार्ग है पूर्ण तनाव से भरा । और बुद्ध कहते हैं कि तनाव कष्टपूर्ण होगा। जितना तनाव है वह भी छोड़ दो।
भब ऐसा हुआ कि बीच में हम खड़े हैं आधे तनाव में। महावीर कहते हैं 'पूर्ण तनाव' ताकि तनाव से बाहर निकल आओ। बुद्ध कहते हैं जितना तनाव है उससे भी पीछे लौट आओ। तनाव ही छोड़ दो। तभी विज्ञान आता है। महावीर की भाषा को अब इस सदी में समझना मुश्किल पड़ जाएगा। क्योंकि कोई तनाव पसंद नहीं करता। तनाव वैसे ही बहुत ज्यादा है। आदमी इतना तना हुआ है इसीलिए मैं कहता हूँ कि भविष्य की जो भाषा है वह बुद्ध के पास है । पश्रिम में महावीर की बात कोई नहीं मानेगा कि और संकल्प करो और तपश्चर्या करो। हम मरे जा रहे है वैसे ही। अब हम पर कृपा करो। हमको कुछ विश्राम भी चाहिए । बुद्ध कहते हैं विश्राम का यह रहा रास्ता कि जितना तनाव है वह भी छोड़ दो, पूर्ण विश्रान्त हो जाओ। यह जंचेगा। तनावों से भरा हमा नादमी जचेगा नहीं।
महावीर के पहले के तेईस तीर्थंकरों के लम्बे काल में प्रकृति के परम विधाम में आदमी जी रहा था। कोई तनाव न था। विश्राम ही था जीवन में । उस विश्राम में महावीर की भाषा सार्थक बन गई क्योंकि विश्राम की बात सार्थक होतो ही नहीं उस दुनिया में । उस दुनिया में आदमी से विश्राम की बात करना बिल्कुल फिजूल था। जैसे बम्बई के आदमी से कहो : चलो डल झील पर वहां बड़ी शान्ति है, तो उसको समझ में आता है। डल झील के पास एक गरीब नादमी अपनी बकरियां चरा रहा है। उसको कहो तुम कितनी परम शान्ति में हो । वह कहता है कभी बम्बई के दर्शन करने को मन होता है । उसके मन में बम्बई बसी है। कभी बम्बई वह जाए स्वाभाविक है। जो जहाँ है वहाँ से भिन्न नाना चाहता है।
जब सारा जगत् प्रकृति की गोद में बसा हुआ था, न कोई तनाव पा, न कोई चिन्ता थी उस स्थिति में संकल्प को बढ़ाकर तनाव को पूर्ण करने की बात ही अपील कर सकती थी। वह भाषा ही काम कर सकती थी। तो वह चली। फिर एक संक्रमण भाया। उस संक्रमण में महावीर बहुत प्रभावी नहीं हो सके और जो लोग उनके पीछे भी गए वे भी उनको मान नहीं सके। वह नाम मात्र की यात्रा रहो । और नए लोगों को वह उस दिशा में नहीं ला सके क्योंकि नया आदमी उसके लिए राजी नहीं हुमा। रोज-रोज संगठन क्षीण होता गया।