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महावीर : मेरी दृष्टि में
को छिपा देता है, मिटा देता है । और अपने अच्छे कर्मों की लम्बी कतार बढ़ा कर खड़ी कर लेता है । और तब एक मुश्किल खड़ी हो जाती है; दूसरे के अशुभ कर्म दिखाई पड़ते हैं क्योंकि दूसरे को शुभ मानना भी हमारे अहंकार को दुःख देना है कि हमसे भी कोई अच्छा हो सकता है । साधारण आदमी को छोड़ दें। बड़े से बड़े साधु से कहें कि आप से भी बड़ा साधु एक गाँव में आ गया है । वह और भी पवित्र आदमी है। आग लग जाएगी क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि मुझसे ज्यादा पवित्र कोई आदमी हो ? तो दूसरे को अपवित्रता को हम खोजते रहते हैं निरन्तर, इसीलिए निन्दा में इतना रस है । शायद उससे गहरा कोई रस ही नहीं है । न संगीत में आदमी को उतना आनन्द आता है, न सोन्दर्य में, जितना निन्दा में आता है। सौन्दर्य छोड़ छोड़ सकता है, सब छोड़ सकता है । अगर जरूरी निन्दा का तो उस रस को वह नहीं चूकेगा । अगर हम दूसरों की बातचीत पता लगाने जाएँ तो सौ में से नब्बे प्रतिशत बातचीत किसी भी निन्दा से सम्बन्धित होगी ।
सकता है, संगीत मोका मिल जाए
निन्दा में रस है क्योंकि दूसरे को छोटा दिखाने में अपने बड़ा होने का ere है। इसलिए हर आदमी दूसरे को छोटा दिखाने की कोशिश में लगा है । अगर कोई हमसे आकर कहे कि फल आदमी बहुत अच्छा है तो हम एकदम से नहीं मान लेते हैं । हम कहेंगे : यह आपकी बात सुनी, जांच-पड़ताल करेंगे, खोजबीन करेंगे क्योंकि ऐसा नहीं हो सकता कि आदमी इतना अच्छा हो । कहाँ इतने अच्छे आदमी होते हैं ? ये सब बातें हैं । सब दिखते हैं ऊपर से अच्छे | भीतर कोई अच्छा होता नहीं। लेकिन एक आदमी हमसे आकर कहता है कि फल आदमी बिल्कुल चोर है। हम कभी नहीं कहते कि हम खोज-बीन करेंगे । हम कहते हैं कि बिल्कुल होगा ही । यह तो होता ही है । सब चोर हैं ही । जब कोई किसी की बुराई करता है तो हम बिना खोज-बीन के मान लेते हैं, तर्क भी नहीं करते, विवाद भी नहीं करते, लेकिन जब कोई किसी की अच्छाई की बात करता है तो हम बड़े सचेत हो जाते हैं । हजार तर्क करते हैं; फिर भी भीतर सन्देह बना हुआ है । और जांच रखते हैं मिल जाए और हम बता दें : 'देखो ! वह तुम गलत कहते थे कि यह आदमी
जारी कि कहीं कोई मौका
हम दूसरे को छोटा
अच्छा था । इस आदमी में ये ये चीजें दिखाई पड़ गईं। दिखाना चाहते हैं । दूसरे को बड़ा मानना बड़ी मजबूरी में कष्टपूर्ण है किसी को बड़ा मानना । किसी को हम बड़ा भी मान
होता है । अत्यन्त लें अगर मजबूरी