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महावीर : मेरी दृष्टि में
। प्रश्न : धावक होने से पहले साधु बनने को उन्होंने नहीं कहा क्या ?
उत्तर : नहीं, बनने का उपाय ही नहीं। श्रावक की व्यवस्था से उसे गुजरना पड़ेगा। या तो धावक होने में ही साधु हो जाए और या वह जिसे हम साधु कहते हैं, वैसा हो जाए।
प्रश्न : परम्परा से प्रामाणिक एवं निर्णीत महावीर के जीवन का बौद्धिक एवं तथ्यपूर्ण आपका विश्लेषण क्या समाज को स्वीकृत होगा?
उत्तर : समाज को स्वीकृत हो, ऐसी आवश्यकता भी नहीं। समाज को स्वीकृत हो इसका ध्यान भी नहीं। समाज को स्वीकृत होने से ही वह ठीक है, ऐसा कोई कारण भी नहीं।
समाज को जो स्वीकृत है, वह वही है कि जैसा समाज है उसको वह वैसा हो बनाये रखे। प्राथमिक रूप से जो मैं कह रहा हूँ उसकी अस्वीकृति की हो सम्भावना है समाज से । लेकिन अगर जो मैं कह रहा हूँ वह बुद्धिमत्तापूर्ण है, वैज्ञानिक है, तथ्य है, तथ्यगत है, तात्त्विक है तो स्वीकृति को टूटना पड़ेगा; अस्वीकृति जीत नहीं सकती है। और अगर यह तथ्यपूर्ण नहीं है, अवैज्ञानिक है, तात्त्विक नहीं है तो अस्वीकृति जीत जाएगी। सवाल यह नहीं कि कोन उसे स्वीकार करे, कोन अस्वीकार करे। मुझे जो सत्य मालूम पड़ता है, वह मुझे कह देना है। अगर वह सत्य होगा तो आज नहीं कल स्वीकार करना ही पड़ेगा। लेकिन सत्य प्राथमिक रूप से अस्वीकार किया जाता है, क्योंकि हम जिस असत्य में जीते हैं वह उससे विपरीत पड़ता है। इसलिए वह पहले अस्वीकृत होता है लेकिन अगर वह सत्य तो टिक जाता है और स्वीकृति पाता है और अगर असत्य है तो मर जाता है, गिर जाता है ।
एक अद्भुत व्यक्ति थे महात्मा भगवान् दीन । वह जब किसी सभा में 'बोलते और लोग ताली बजाते तो वह बहुत उदास हो जाते । मुझसे वह कहते
थे कि जब कोई ताली बजाता है तो मुझे शक होता है कि मैंने कोई असत्य तो नहीं बोल दिया क्योंकि इतनी भीड़ सत्य के लिए ताली बजाएगी एकदम से, इसकी सम्भावना नहीं है। वह कहते कि मैं उस दिन की प्रतीक्षा करता हूँ जब भीड़ एकदम से पत्थर मारेगी तो मैं समझंगा कि जरूर कोई सत्य बोला गया है क्योंकि भीड़ असत्य में ही जीती है, समाज असत्य में जीता है । और सत्य पर पहले तो पत्थर ही पड़ते हैं। वह सत्य की पहली स्वीकृति है। और सत्य अगर सत्य है तो अस्वीकृति को आज नहीं कल मर जाना होगा।