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महावीर :मेरी दृष्टि में
जीवन से सम्बन्धित प्रश्नों की बात उठा देता है जबकि पंडित से वैसी वाशा असम्भव है। __पंडित प्रश्न भी उधार ही पूछता है यानी प्रश्न भी उसका अपना नहीं होता। उत्तर तो बहुत दूर की बात है। वह प्रश्न भी उसने किताब में पढ़ा होगा । और जब वह प्रश्न पूछता है तब उसके पास उत्तर तैयार होता है । यानी वह आपसे कोई बड़े प्रश्न के उत्तर की आकांता नहीं कर रहा है। वह शायद आपका परीक्षण ही कर रहा है कि आपको भी यह उत्तर पता है या नहीं। उत्तर भी उसके पास है, प्रश्न भी उसके पास है। प्रश्न से भी पहले वह उत्तर को पकड़ कर बैठा हुमा है। और अब वह जो प्रश्न उठा रहा है, वह प्रामाणिक नहीं है, उत्तर प्राणों से नहीं आ रहे हैं।
तो शास्त्रीय लोग भी है जिनकी सारी जिन्दगी किताबों के द्वन्द्व-फंदों के भीतर गुजरती है । महावीर खुलो जिन्दगी के पक्षपात है, खुले आकाश के नीचे नग्न खड़े हैं । खुली जिन्दगी, सच्ची जिन्दगी, जैसी है वह उसको छूना चाहते हैं, इसलिए शास्त्र को बिल्कुल हटा देते हैं, शास्त्रीयता को बिल्कुल हटा देते हैं, शास्त्रीय व्यवस्था को ही हटा देते हैं और हमेशा ऐसी जरूरत पड़ जाती है कि कुछ लोग वापिस जिन्दगी का हमें स्मरण दिलाएँ। नहीं तो किताबें बड़ो खतरनाक है। धीरे-धीरे हम यह भूल हो जाते हैं कि जिन्दगी कुछ और है और किताब कुछ और है । एक घोड़ा वह है जो बाहर सड़क पर चल रहा है। ___ एक घोड़ा वह है जो शब्दकोष में लिखा हुआ है। जिन्दगो भर जो किताब में उलझे रहते हैं, वे किताब के घोड़े को ही असली घोड़ा समझने लगे तो आश्चर्य नहीं है । यहाँ, इतना जरूर है कि किताब के घोड़े पर चढ़ने को भूल कोई कभी नहीं करता । लेकिन किताब के परमात्मा पर प्रार्थना करने की भूल निरन्तर हो जाती है। किताब का परमात्मा इतना हो सही मालूम पड़ने लगता है जितना कि असली परमात्मा होगा। लेकिन किताब का परमात्मा बात हो और है । शब्द 'आग' आग नहीं है। किसी मकान पर 'आग' लिख देने से मकान नहीं जल जाता । 'आग' बात ही और है। 'भाग' तो कुछ बात ऐसी है कि 'आग' शब्द भी जल जाएगा उसमें । वह भी नहीं बच सकेगा । लेकिन भूल होने का डर है कि शब्द 'आग' को कहीं हम 'आग' न समझ लें और शब्द 'परमात्मा' को कहीं हम परमात्मा न समझ लें । और जो शब्दों की दुनिया में जीते हैं, उनमें यह भूल होती ही है। उन्हें याद ही नहीं रह जाता कि कब जिन्दगी से वे खिसक गए हैं और एक शब्दों को दुनिया में भटक गए हैं।